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सांस्कृतिक उत्कर्ष या पतन…

अंगार
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जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, शायद सन १९७७-७८ के आस-पास ऋषिकेश में टीवी आ गया था. इस समय तक बच्चों के दो ही काम होते थे, पढना और खेलना. और खेल के नाम पर अक्सर डांट या मार ही पड़ती थी क्योंकि खेल ही ऐसे होते थे, पतंगबाजी, गुल्ली-डंडा, कंचे जिनमे कि बच्चे धूल-मिटटी से सने रहते थे या अक्सर चोट खा लिया करते थे. इन्ही खेलों के कई निशान आज तक शरीर पे मौजूद हैं. खैर, टीवी आया तो लोगों को मनोरंजन और शिक्षा का एक नया साधन मिला. बच्चे तो शाम का इंतजार करते थे और शाम होते ही टीवी के सामने बैठ जाते थे बल्कि काफी समय तक तो दूरदर्शन कि घडी ही ताकते रहते थे और जैसे ही दूरदर्शन का लोगो संगीत के साथ घूमता हुआ आता था तो ख़ुशी के मारे हल्ला मचा देते थे कि शुरू हो गया. बचपन में कई साल तक कृषि-दर्शन के कार्यक्रम तक मजबूरी में देखे जिनकी वजह से कई जानकारियां आज तक दिमाग में हैं. तब दूरदर्शन पर बड़े ही सभ्य, शालीन और शिक्षाप्रद कार्यक्रम आया करते थे. पढाई, खेल और टीवी का समय भी बड़ा ही आनुपातिक था. लेकिन जैसे-जैसे technology के क्षेत्र में क्रांति हुई और विदेशी चैनल्स का आगमन हुआ, कम्प्यूटर और इन्टरनेट घर-घर पहुंचा, मनोरंजन का स्तर भी गिरता चला गया. आज हालत ये है कि पूरे कपडे पहन कर कोई भी अभिनेत्री अभिनय कर ही नहीं सकती. उसका सर्वश्रेष्ठ अभिनय सीन कि मांग के अनुसार अंग दिखा कर ही आता है. माधुरी दीक्षित कितनी ही अच्छी अभिनेत्री और डांसर रही हो, उसकी चर्चा हमेशा तब हुई जब माधुरी ने सरोज खान की अश्लील कोरियोग्राफी पर धक्-धक् के साथ और अभिनेत्रियों को भी छातियों का बेहतर इस्तेमाल करने की कला सिखाई या फिर दुनिया को खुलकर बताया कि चोली के पीछे क्या है. और देखिये कैसी विडम्बना है कि जिनके पास करोड़ों हैं वो तन को जानबूझकर ढकते ही नहीं, इनके छोटे छोटे अंगवस्त्र तक लाखों करोड़ों में नीलाम होते हैं, और एक मजदूर कि बीवी जिसके पास पैसे का अभाव है, आपको हमेशा ही सस्ती सी धोती में भी तन ढके ही मिलेगी.
आज टीवी हमारी दिनचर्या का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया है. हमारा नाश्ता, खाना-पीना सब इसके साथ ही होता है. मुझे बचपन से ही खाते समय कुछ न कुछ पढने के लिए कहिये होता था बल्कि कई बार कुछ नया न मिलने पर कई किताबे, लेख आदि कई-कई बार पढ़ लेता था हालाँकि ये कोई अच्छी आदत नहीं है और बड़ों से हमेशा इस बात पर डांट खाई है कि खाते समय सिर्फ खाने पर ध्यान दो लेकिन इसी दौरान बहुत सी जानकारियां भी जुटाई हैं. लेकिन अब तो बच्चों कि आँखे खाते-पीते टीवी पर ही जमी रहती हैं. और टीवी पे आ क्या रहा है, टेलेंट हंट के नाम पर बच्चों को केवल नाचना या गाना सिखाया जा रहा है. क्या हिंदुस्तान का टेलेंट केवल नाचने -गाने तक ही सीमित हो कर रह गया है? टीवी पर आने वाले कॉमेडी के प्रोग्राम कॉमेडी के कम बल्कि अश्लीलता कि पराकाष्ठा से भरे हुए होते हैं. कॉमेडी प्रोग्राम कि एंकर अपने निम्नतम वस्त्रों में होती है और सभी कलाकार बार बार उसकी नग्नता पर कमेन्ट कर कॉमेडी चैम्पियन कहलाते है और अपने शरीर के ऊपर बार बार होने वाले कमेंट्स पर एंकर पूरे प्रोग्राम के दौरान खिलखिलाती रहती है. औरों के लिए ये कॉमेडी का प्रोग्राम होता है लेकिन इस एंकर के पास यही मौका होता है जब कि वो अपने टेलेंट दिखाकर अपना कैरियर बना सकती है. कॉमेडी के कलाकार कॉमेडी कम बल्कि अश्लीलता ज्यादा करते हैं जरा इनके कुछ trademark जुमलों पर गौर फरमाएं….तेरी माँ का साकी नाका, तेरे शरीर में इतने छेद कर दूंगा कि असली नहीं दूंढ़ पायेगा, भूतनी के, साले, हरामी, कुत्ते, कमीने, नामर्द, …….शायद ही कोई गाली या भद्दे शब्द होंगे जो कि इन कार्यक्रमों में इस्तेमाल न होते हो और ये सब बड़ों के सामने तो फिर भी चल जाए लेकिन एक छोटी सी बच्ची सलोनी के सामने बड़े बड़े कलाकार ये सब करते हैं और बेशर्म निर्णायक जिनमे कि एक महिला भी है और जिनके जवान हो चुके बच्चे भी हैं बड़े भद्दे तरीके से ठहाके लगाते हैं. आप समाज को तो छोडिये छोटे छोटे बच्चों को क्या सिखा रहे हैं, वो भी वही बोल रहे है जो कि आप उन्हें सिखा रहे हैं. पुरुषों को छोडिये कम से कम महिलाओं से तो ऐसी बेशर्मी कि उम्मीद कम से कम हमारे देश में तो नहीं की जाती. महिलाओं को पुरुषों की बराबरी करनी चाहिए लेकिन अश्लीलताका प्रदर्शन करने में नहीं. इसी तरह के कार्यक्रम है राखी का इन्साफ, बिग बास जहाँ बदतमीजी और अश्लीलता की भरमार है. मेरा एक बचपन का मित्र हमेशा परेशान रहा करता था कि यार मै जब भी टीवी पे कुछ देखता हूँ बाद में पिताजी पूछते हैं कि बताओ इस कार्यक्रम से क्या शिक्षा मिलती है. अब कोई किसी बच्चे से तो क्या किसी बड़े से ही पूछ ले कि बिग बास से हमें क्या शिक्षा मिलती है.
अब ये हमारा सांस्कृतिक उत्कर्ष है या पतन पता नहीं क्योंकि इस देश में ऐसे बुद्धिजीवियों कि कोई कमी नहीं है जो इन जैसे कलाकारों के हिमायती होते हैं . जरूरी नहीं कि जो हमें न पचे वो वो किसी को भी न पचे. कला के नाम पर पचाने वाले बहुत हैं और उनके हिमायती भी बहुत हैं. पर भाई हमें जो पचता नहीं उसे बाहर निकल देते हैं. आप पचा सकते हो तो पचा लो……

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