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मत मारो इन्हें

अंगार
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विगत कुछ दिनों से एक टस्कर हाथी ने देहरादून-ऋषिकेश मार्ग पर आतंक मचा रखा है और मात्र एक सप्ताह के भीतर यह हाथी तीन लोगों की जान ले चुका है. विगत ६ वर्षों में इस क्षेत्र में टस्कर हाथी कुल मिलकर १३ लोगों की जान ले चुके हैं. टस्कर का अर्थ होता है-गजदंतों वाला. विशेषकर अफ्रीका के सभी हाथी चाहे वह नर हो या मादा, टस्कर ही होते है. इस टस्कर हाथी के खौफ की वजह से फिलहाल देहरादून-ऋषिकेश मार्ग सांय ४ बजे से सुबह ८ बजे तक बंद कर दिया गया है. स्थानीय लोगों के जबरदस्त विरोध और प्रदर्शन के चलते दबाव में आकर वन विभाग के अधिकारियों ने इस हाथी को पागल घोषित करने और गोली मार देने की संस्तुति कर उच्च अधिकारियों को भेज दी है. लेकिन क्या सिर्फ गोली मार कर इस समस्या से छुटकारा पाने का यह समाधान उचित है? क्या जान से मार देने के बजाय इस जानवर की मनोदशा और ऐसे हालातों के लिए जिम्मेदार पहलुओं का अध्ययन कर वैकल्पिक और सकारात्मक समाधान नहीं ढूँढा जा सकता?

डिस्कवरी और एनिमल प्लेनेट जैसे चैनलों पर हाथियों की मनोदशा और उनके मानव पर आक्रमण करने के हालातों का अध्ययन और विश्लेषण करने वाले कार्यक्रम कई बार प्रसारित हो चुके हैं और अब भी होते रहते हैं. इन कार्यक्रमों को बड़े चाव से देखने के बाद लोग आपस में चर्चा करते हैं कि वाह कितनी बढ़िया स्टोरी थी. भई क्या केवल स्टोरी ही बढ़िया थी या आपने इससे कुछ सीखा और समझा भी? हाथी के उन्मत्त और हिंसक हो जाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं जिनका कि विश्लेषण किया जाना अत्यंत जरूरी है.

प्राचीन काल से ही हाथी मनुष्य का शत्रु कम बल्कि मित्र ही ज्यादा रहा है. मनुष्य ने हाथी का प्रयोग युद्ध से लेकर जीविकोपार्जन, सवारियां और माल ढोने, जंगल सफारी, सर्कस में मनोरंजन और यहाँ तक कि शिकार में भी इसका प्रयोग किया है. हमारे देश में हाथी धार्मिक महत्व भी रखता है और थाईलैंड में तो आज भी हाथी का धार्मिक और सामाजिक महत्व है है और वहां पर इसकी पूजा की जाती है.
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हाथी के उन्मत्त और हिंसक होने के पीछे कई कारण हो सकते हैं. हाथी जब युवावस्था में आते हैं तब सहवास के लिए हाथियों में संघर्ष होता है और जो हाथी इस संघर्ष में हार जाता है, अपमानित और यौनेच्छा पूर्ण न होने से ‘मस्त’ हो जाता है और झुण्ड में उत्पात करने लगता है. हाथी की इस मस्त अवस्था को हाथी का पागल हो जाना भी समझा जाता है लेकिन यह अवस्था अस्थाई होती है. तब हाथी जिनका कि हमारी तरह ही एक सामाजिक तानाबाना होता है, इस मस्त हाथी को अपने झुण्ड से बहिष्कृत कर देते हैं. इस प्रकार झुण्ड से अलग होकर एकाकी हो जाने और यौनेच्छा पूर्ण न होने से हाथी हठी, उन्मत्त और हिंसक हो जाता है. लेकिन ये तो सिर्फ एक प्राकृतिक कारण है. हाथी की इस स्थिति के पीछे मानव जाति भी बहुत हद तक दोषी है. हाथी, जिन्हें कि अपने प्रवास और भोजन-पानी के लिए पर्याप्त घने और अनुकूल जंगल की आवश्यकता होती है, मानव जाति की बढती इच्छाओं के चलते आज उन्हें अपने अनुकूल वातावरण नहीं मिल पा रहा है. इस कंक्रीट युग के चलते जंगल के जंगल नष्ट हो रहे है और जानवरों का आश्रय समाप्त होता जा रहा है. जिस वन विभाग को इन जंगलों और जानवरों के सरंक्षण का जिम्मा सौंपा गया है, वही इन जंगलों को कटवा रहा है और जानवरों का शिकार करवा रहा है. कडवी बात है पर सच्चाई यही है कि वनों का कटान वन विभाग की मिली भगत से ही होता है और रसूख वाले लोगों को शिकार कि सुविधा भी वन विभाग ही मुहैया कराता है. वन विभाग के गेस्ट/रेस्ट हाउस किस प्रकार शराब पार्टियों के आयोजन, शिकार करने व पकाने और तफरी के लिए इस्तेमाल होते हैं, ये सभी जानते हैं. ऋषिकेश बाई पास मार्ग पर प्रतिदिन दिन-दहाड़े टनों लकड़ियाँ जंगल से काटकर लाते लोगों को कभी भी देखा जा सकता है और ये सब खुले आम सबके सामने हो रहा है. कभी इस जंगल के भीतर जाकर देखिये या गूगल अर्थ के माध्यम से भी आप देख सकते हैं कि यह जंगल अब सिर्फ नाम का ही रह गया है, इसके अन्दर पेड़ गिनती के ही बचे हैं. अब हाथी जैसे विशालकाय जानवर को अपने सुरक्षित प्रवास और भोजन-पानी जंगल के भीतर नहीं मिलेगा तो निश्चित ही वह मानव बस्तियों की और रूख करेगा और ऐसे में मानव से उसका सामना निश्चित है.

अभी कुछ वर्ष पहले जब तक कि मल्टी नेशनल वाहन कंपनियों का आगमन नहीं हुआ था, देहरादून से ऋषिकेश के लिए आखिरी बस रात ८ बजे के करीब चलती थी. लेकिन जब से इन मल्टी नेशनल वाहन कंपनियों का आगमन हुआ है इस मार्ग पर देर रात तक ट्रैफिक चलता रहता है. चूंकि देहरादून-ऋषिकेश मार्ग जंगल के बीच से होकर जाता है, हाथी पहले भी सड़क पर अक्सर आ जाया करते थे लेकिन तब वे इतना असुरक्षित महसूस नहीं किया करते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों में घटते जंगल, बढ़ते ट्रैफिक, तेज लाइटों और कान-फोडू हार्न वाले वाहनों के लगातार देर रात तक चलते रहने के कारण हाथी स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. ये बात जगजाहिर है कि हाथी तेज रोशनी और शोर से घबराता है. मानव बस्ती में कोई अनजान पशु घुस आये तो तो मानव भी पशु हो जाता है और मानव की पाशविकता से ज्यादा खतरनाक दुनिया में कुछ नहीं है, फिर अगर पशु की बस्ती में मानव घुस जाए तो पशु तो अपना प्राकृतिक व्यवहार ही तो कर रहा है, इसमें उसकी क्या गलती है. अपने अस्तित्व पर खतरा जानकार बिल्ली भी कुत्ते को रौद्र रूप दिखा देती है.

    हाथी को बहुत ही समझदार और संवेदनशील जानवर माना जाता है. बचपन में शायद सभी ने हाथी और दरजी के लड़के की कहानी पढ़ी होगी. हाथी मानव की तरह ही बहुत संवेदनशील होता है और बदला लेने की प्रवृत्ति भी उसमे होती है. इस बात की क्या गारंटी है कि इस एक हाथी को मार देने के बाद फिर ऐसी घटनाएं नहीं होंगी. फिर एक और मारोगे, फिर एक और… क्या सारे ही खत्म कर दोगे? पहले ही हमारे देश में संसारचंदों की कमी नहीं है, ऊपर से आप भी इस मुहिम को आगे बढ़ने को तत्पर हैं. वैसे हमारी ये मनुष्य जाति है बड़ी मानवतावादी, पहले जानवरों को मारो, बाद में लोगों को दर्द भरे किस्से सुनाओ कि अरे यार हमारे जमाने में तो फलाना जानवर होता था, फलाना पक्षी होता था, पर यार अब तो देखने को भी नहीं मिलते.

बस बहुत हो गया ड्रामा, अब बंद करो ये बकवास. क्या इन निरीह जानवरों को मारते-मारते 1411 की गिनती पर लाकर ही रुकोगे? फिर लाओगे पकड़ के अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, आमिर खान और न जाने कौन-कौन से पठान और चौहान और ये टीवी पर आकर कहेंगे कि सिर्फ 1411 ही बचे हैं, जैसे एक भी कम हो गया तो इनकी रेपुटेशन ख़राब हो जायेगी. बाघ तो इतने ही रह गए हैं (भगवान ही जानता है), अब हाथी भी इतने ही कर लो, तैयार कर लो एडवांस में तख्तियां, पोस्टर, बैनर, टोपियाँ और टी-शर्टें जिन पर लिखा हो- “बस 1411 ही बचे हैं”.

  1.  
      “तुम तो मानव होकर भी पशुवत हो गए,
      फिर भी मानवतावादी बने रहे,
      हम तो पशु होकर पशु ही बने रहे,
      फिर भी जिन्दा न रहे.”
  2. सुझाव- इस हाथी को ट्रेंकुलाईजर की मदद से किसी घने जंगल में छोड़ दिया जाय या किसी चिड़ियाघर में शिफ्ट कर दिया जाए. पर प्लीज ….मारा न जाये…….
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