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वेलेंटाइन कांटेस्ट का पोस्टमार्टम

अंगार
अंगार
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एक बार की बात है, तैरने की प्रतियोगिता का आयोजन किया गया. इस प्रतियोगिता में सैकड़ों लोग भाग लेने पहुंचे लेकिन तैरने के लिए पानी में सिर्फ ४-५ तैराक ही उतरे, बाकी सब बाहर से ही प्रतियोगिता के आयोजकों को ये बताते रहे कि सही ढंग से कैसे तैर सकते हैं, तैरने के गलत तरीके कौन से होते हैं, हम तैरते तो ऐसे तैरते-वैसे तैरते, तैरने के क्या फायदे-नुक्सान होते हैं, ………आदि-आदि…….अर्थात तैरना छोड़ कर उन्होंने वो सब खूब बढ़-चढ के बताया जो कि वास्तव में पानी में उतरते ही वो सब भूल जाते और उनके दिमाग के सभी ढक्कन बंद हो जाते. लेकिन जैसा कि मुझे निर्णायकों की दिमागी क्षमता पे पहले से ही पूरा यकीन था, उसी पे खरे उतरते हुए उन्होंने असली तैराकों को छोड़कर …………….मेरा उनकी निर्णय क्षमता से भरोसा उठने नहीं दिया……

……..अबे यार कहाँ से शुरू कर दिया मैंने, बात का कुछ सर पैर भी तो हो. आ गया ना अपनी औकात पे, हो गया उतारू पंगे लेने पे. कभी-२ तो मुझे अपना ये अंगार चंद परसाई जी की रचना ‘असहमत’ का करेक्टर नजर आता है जो कभी भी किसी बात पर सहमत ही नहीं होता. ऐसा हुआ तो क्यूं हुआ, और नहीं हुआ तो क्यूं नहीं हुआ? सच में बड़े शानदार होते हैं ऐसे करेक्टर.

अपना भाई वाहिद गाने को अंतरे से उठाना शुरू करता है और शुरुआत पे खत्म करता है. कहता है कि ये उसकी स्टाइल है. तो आज उसकी इसी स्टाइल से लेख उठाने की कोशिश कर रहा हूँ. लेख को अंतरे से उठा तो दिया अब शुरुआत की ओर बढ़ता हूँ  यानी कि असल मुद्दे पे आ ही जाता हूँ क्योंकि दिमागी अपच होने लगी है. जल्दी से गंदे विचार बाहर नहीं निकाले तो इनके साथ अच्छे विचार भी बह जायेंगे.

एक तथाकथित नज्म की चार पंक्तियाँ फ्री फंड में एवंई सुनिए-

अब तुम्हारी लेखनी में वो दम नहीं रहा अंगार चंद,

वरना इस प्यार की झूठी बरसात में,

बूढ़े आशिकों के बंजर प्लाट पर,

यूं झाड नहीं उगते.

अभी हाल ही में जागरण जंक्शन पे वेलेन्टाइन कांटेस्ट के आयोजन के साथ ही झूठी प्यार-मोहब्बत  का ऐसा सैलाब आया कि अपने अंगारे भी इसकी चपेट में आते-२ रह गए. सच्चे प्रेमी तो बस दो-चार ही थे जिन्होंने छाती ठोक के कहा कि हाँ मैंने प्यार किया और इस अंदाज में किया. बाकी सारी भीड़ तो बस ये विश्लेषण करने पे तुली थी कि प्यार क्या होता है, इसके कितने स्वरूप होते है, सही प्यार, गलत प्यार, प्यार कैसे करें, कैसे ना करें, मैं होता तो ऐसे प्यार करता, माता-पिता का प्यार, भाई-बहन का प्यार, मानव पशु का प्यार…..और ना जाने कौन-२ सा प्यार. इस भीड़ हल्ले में सच्चे प्रेमियों के अपील तो अम्पायरों के सामने यूं दब कर रह गयी जैसे कि खली के पैर के नीचे टमाटर आ जाए तो खली तो क्या उसके बाप को भी पता नहीं चलेगा कि उसके नीचे कुछ दब गया है.

अब अम्पायरों को भी कौन सा पता था कि वेलेन्टाइन डे होता किस लिए है, वेलेन्टाइन किंग और क्वीन के मायने क्या होते हैं और प्रतियोगिता का असल विषय है क्या. प्यार करने वालों को पहचानना है या प्यार का पोस्टमार्टम करने वालों को. मैं तो कहता हूँ कि खुद संत वेलेन्टाइन भी इस प्रतियोगिता में भाग लेते तो पिछवाड़े से दूसरे नंबर पे आते. दूसरे पे मैंने इसलिए रखा कि जिस बंदे ने दुनिया में इतना बवाला काट रखा है, उसकी इतनी भी बेईज्जत्ती ठीक नहीं है यारों.

सबसे पहले तो ये जान लें कि वेलेन्टाइन डे है किसके लिए. इतिहास नहीं बताना चाहता इसलिए सीधे मुद्दे की बात कर रहा हूँ. हालांकि मेरी टाट-पट्टी संस्कृति में हुई शिक्षा की औकात के अंदर ही मेरी खोपड़ी का विकास हुआ है इसीलिये ये भी संभव है कि शायद इस अंग्रेजों के प्रेम दिवस को मैं ठीक से ना समझ पाया होऊं.

तो जितना कि मुझ कम अक्ल , नामुराद की समझ कहती है, वेलेन्टाइन डे है खालिस प्रेमी-प्रेमिका अर्थात दो विपरीतलिंगियो के प्रेम का दिन, नर और नारी के प्रेम का दिन. अब हमारा ये देश तो महान विद्वानों से भरा हुआ है जिसने इस प्रेम-दिवस का ऐसा पोस्टमार्टम किया कि इसे माँ-बेटे/बेटी, बाप-बेटे/बेटी, भाई-बहन, चाचा-भतीजा, हिंदू-मुस्लिम, कुत्ता-बिल्ली, सांप-नेवले, फूल-पत्ती……..ना जाने किस-किसके प्यार का दिन बता दिया. सच कहता हूँ भाइयों आज संत वेलेन्टाइन की आत्मा जहाँ भी होगी इनके प्यार को देख के अपना केशलोचन बिना मेरा लेख पढ़े ही कर रही होगी.

तो हे संत श्रेष्ठ जब आप भी अपना केशलोचन कर ही चुके हैं तो मेरी दो पंक्तियों से आप पर अब कोई भी दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा ये मेरा खुद की कलम का भरोसा. बस दो लाइनें झेल लीजिए-

“नोच लिए जो सर के बाल तुमने तो गम ना करो,

मेरा यार अभी विगों के सेट लेकर आने ही वाला है”

मुझे पता है कि आप दाद दिए बिना मानोगे थोड़े ही, जरा अपनी पीठ खुजा लूं तो चलूँ………मतलब आगे बढूँ.

हां जी तो मैं की कै रिया सीगा ? हाँ…….तो ब्रदरों मेरे हिसाब से तो ९५% लेख तो विषय पर थे ही नहीं, उनमें प्यार-प्रेम तो कहीं था ही नहीं बल्कि वे तो प्यार का विश्लेषण मात्र करने की कोशिशे कर रहे थे. अरे भाई प्यार तो बस प्यार होता है. वो तो बस हो जाता है. कैसे हो जाता है, क्यूं हो जाता है, ये तो करने वालों को भी पता नहीं चलता. प्यार कोई आलू-प्याज नहीं है जो छांट के किया जाए, प्यार कोई गणित का सवाल नहीं जिसे कैलकुलेट किया जाय, दिमाग लगाया जाय. वो तो बस हो जाता है……अमीर को गरीब से, खूबसूरत को बदसूरत से, गोरे को काले से, होशियार को बेवकूफ से, काबिल को नाकाबिल से, लायक को नालायक से, जवान को बूढ़े से …….बस हो जाता है तो हो जाता है. ये बाद की बात है कि इसका अंजाम क्या होता है, पर ये तो हो जाता है.

अभी कुछ दिन पहले ही किसी के ब्लॉग पर पढ़ा कि एक युवा, उच्च शिक्षित, सुन्दर और अच्छे घर की युवती को एक अनजान अंधे युवक को सड़क पार कराते-२ उससे कब प्यार हो गे कि उसे खुद भी पता ही नहीं चला और उसने उस अनजान अंधे युवक से विवाह कर अपना जीवन कष्टों के हवाले कर दिया……..इसी तरह एक लेख पर एक युवती के अपनी उम्र से कहीं ज्यादा के प्रौढ़ से प्यार करने का किस्सा……और प्रोफ़ेसर मटुकनाथ का किस्सा तो आप जानते ही होंगे जिन्होंने कि अपने से कहीं छोटी उम्र की अपनी ही शिष्या को ही दिल दे दिया, हालांकि उन की खूब बेईज्जत्ती हुई, मुंह पे कालिख पोती गई……पर प्यार कम नहीं हुआ. अक्सर सुनने में आता है कि प्रेमियों ने एक-दूसरे के लिए जान दे दे, आत्महत्या कर ली……….

अब लोग इनके ऊपर शोध करते रहें कि ये गलत हैं, बेवकूफ हैं, पागल हैं………..क्योंकि उन्होंने खुद तो कभी किया ही नहीं, और किया भी तो कैलकुलेट करके यानी झूठा, दिखाने के लिए……..लोग खुद को प्यार का सबसे बड़ा विचारक तो साबित करते हैं पर प्यार कर नहीं सकते. ये उनकी pseudo-honesty  है. क्योंकि इन सच्चे प्रेमियों का प्यार तो उनकी समझ नहीं आता पर जैसे ही ये लैला-मजनू, हीर-राँझा, शीरी-फरहाद के ऊपर लिखने लगते हो तो इनके प्यार में उनको दर्शन नजर आने लगता है, जबकि ये भी ऐसे ही प्रेमी जोड़े थे, प्यार में पागल…….बदनाम…….कपडे फड़वाने  वाले, पत्थरों से मार खाने वाले……दुनिया भर की आफतें मोल लेने वाले…..एक-दूसरे के लिए जान देने वाले……….. प्रतियोगिता तो इन महान प्रेमियों के नाम पे होनी चाहिए. लेकिन हम ठहरे विदेशी  मानसिकता के गुलाम……….प्यार का मसीहा भी ढूँढा तो वो भी विदेशी…….

मेरे विचार से तो वेलेन्टाइन किंग या क्वीन तो वो होना चाहिए जो ये साबित कर दे कि उसने सच्चा प्यार किया है. और जितने लेख मैं पढ़ पाया उनमे से मेरे हिसाब से सबसे बड़ा वेलेन्टाइन किंग है- आकाश तिवारी जिसने छाती ठोक के कहा कि हाँ उसने किसी को प्यार किया है, और अभी भी उसी शिद्दत से करता है. आसान नहीं होता यूं खुले आम सबके सामने अपनी कमजोरियां (आंसू) जाहिर कर देना…..ये कह देना कि वो आज भी किसी को प्यार करके रोता-तडपता है……..

इसी तरह वाहिद का ब्लॉग ‘बस कुछ ही दूर’ सम्पूर्ण ब्लाग्गिंग का शानदार नमूना था जिसमें उन्होंने ब्लाग्गिंग की सभी खूबियां यानी कि फोटो, वीडियो, गीत, कविता……सभी का शानदार प्रयोग किया और सबसे बड़ी खासियत थी इसमें उनकी खुद की बनाई पेंटिंग, खुद अपने स्वर में गीत, और अपनी मौलिक रचना,…..यानी कि हर पहलू से उत्कृष्ट………और जिस शिष्ट अंदाज में उन्होंने अपना प्रेम-सन्देश दिया है, उसे समझने के लिए मुझे लगता है कि निर्णायकों को रोज सुबह-२ चार भीगे बादाम तीन साल तक चबाने पड़ेंगे तब उनकी समझदानी में जरूर कुछ आ जाएगा.

इसके अलावा सूर्यप्रकाश तिवाडी का भी ‘मिलन प्यार का’ में अपनी पत्नी के प्रति अगाध प्रेम को खुल के जाहिर करना, भी उनका मजबूत दावा पेश करता था, हालांकि उन की दूसरी रचना टॉप १० में चुनी गयी. गोपाल जी की रचना ‘छेडो कोई गीत नया ओ मेरे साथी’ भी प्रेम-सन्देश का एक बेहतर नमूना है. लेकिन मैं आकाश तिवारी और वाहिद को ही वेलेन्टाइन किंग का बेहतर दावेदार मानता हूँ क्योंकि ये दोनों ही अभी कुंवारें हैं.

महिलाओं में पूजा जी कि रचना ‘तुम्हारे प्रेम का अर्थ’ मुझे खास पसंद आई. हालांकि हमारे देश में महिलायें अभी भी खुल के अपने प्यार का इजहार करने में हिचकिचाती ही हैं, इसलिए उनकी ओर से ऐसे खुले विचारों के स्थान पर प्रतीकात्मक विचार आने प्राकृतिक ही हैं.

चल भाई अंगार चंद दिमाग को अब थोडा आराम दे, गर्मी कुछ ज्यादा हो गयी है. बहुत देर से फालतू के पंगे ले रहा है ………..काम-धाम नहीं है कुछ और……..निकल ले पतली गली से वर्ना वो देख भीड़ इधर ही आ रही है………और उनके हाथों में कुछ सामान भी है……..चल बेटा दुडकी हो ले……

नोट: मेरा सभी लेखकों से विनम्र निवेदन है कि इस लेख को कोई भी लेखक व्यक्तिगत रूप से ना ले, क्योंकि ये लेख किसी की लेखन क्षमता के ऊपर नहीं है बल्कि व्यक्तिगत रूप से मेरा सही गलत का विश्लेषण मात्र है. आपके लेख उत्कृष्ट हैं और मैं उन पर नहीं बल्कि विषय पर चर्चा कर रहा हूँ. इसलिए इसे लेखकीय भावना से ही लें.

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