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अरुणा को न्याय चाहिए

अंगार
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अभी कुछ दिन पहले ही हृतिक रोशन की फिल्म ‘गुजारिश’ शायद आप लोगों ने देखी होगी जो कि ‘युथनेशिया’ अर्थात इच्छा मृत्यु के विषय पर बनी थी. ये कहानी भी कुछ-कुछ ऐसी ही है. ये कहानी शायद अब सभी लोग पढ़ चुके होंगे. इसे मैं एक कहानी ही कहूँगा क्योंकि ३७ सालों का लंबा यातनादायक सफर झेल कर ये घटना एक कहानी, नहीं-नहीं, बल्कि कहना चाहिए एक दर्दनाक त्रासदी की कहानी बन चुकी है.  

 

आज से कुछ साल पहले जब पहली बार मैंने मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम हॉस्पिटल) अस्पताल में कई वर्षों से (अब ३७ साल) से बेहोश पड़ी अरुणा रामचंद्रन शानबाग की दास्तान पढ़ी थी तब शायद मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया था और एक कहानी की तरह ही मैं इसे भूल सा चुका था. लेकिन हालिया अखबारों की सुर्ख़ियों से मुझे वो कहानी फिर से याद आ गई और आज शायद इसकी गंभीरता का ज्यादा एहसास हो रहा है. हालांकि ये कहानी मानव के विकृत दिमाग और वहशियत की एक ऐसी शर्मनाक दास्तान है कि इसको अक्षरश लिखना भी मेरे बस में नहीं है, फिर भी संक्षिप्त में इसलिए लिखना पड़ रहा है कि यदि कोई इस कहानी से अपरिचित हो तो वो भी इसे जान ले.

 

अरुणा रामचंद्रन शानबाग ने 1966 में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम हॉस्पिटल) में नर्स की नौकरी से कैरियर की शुरुआत की थी। इसी अस्पताल का एक सफाई सोहनलाल वाल्मीकि कर्मचारी अरुणा पर बुरी नजर रखता था. अरुणा इसका जिक्र अपनी सहकर्मियों से अक्सर किया करती थी. अरुणा उसे अस्पताल में मरीजों को दिए जाने वाले दूध की चोरी करते हुए भी देख चुकी थी और उसने अस्पताल प्रशासन से उसकी चोरी की शिकायत भी की थी. यह घटना 27 नवंबर 1973 की है जब सोहनलाल ने चोरी की शिकायत करने के कारण अरुणा से अत्यंत खौफनाक तरीके से बदला लिया. सोहनलाल ने कुत्ते की जंजीर अरुणा के गले में बांधकर उसके साथ दुष्कर्म किया फिर अरुणा को मृत समझकर सोहनलाल वहां से भाग गया। जंजीर से गला घुटने से दिमाग तक आक्सीजन ले जाने वाली अरुणा की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो गई और वह धीर-धीरे ब्रेन डेड (अर्ध कोमा) की हालत में पहुंच गई और उसकी देखने की शक्ति भी जाती रही. तबसे अरुणा अस्पताल में ही भर्ती हैं।

 

सुनने में ये एक आम कहानी ही लगती है लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि इसको अक्षरश लिखना भी मेरे बस में नहीं है क्योंकि इसमें स्त्रियों से सम्बंधित कुछ ऐसी संवेदनशील बातें हैं जिन्हें लिखना मेरे लिए संभव नहीं है, अतः इस पूरी घटना के बारे इन लिंक पर जरूर पढ़ें-

 

http://en.wikipedia.org/wiki/Aruna_Shanbaug

http://hubpages.com/hub/Rape-In-Revenge

 

अब अरुणा न देख सकती है, न सुन सकती है, न बोल सकती है और न ही हिल सकती है क्योंकि उसका दिमाग काम करना बंद कर चुका है। दिन में एक बार चाय में भिगोकर जबरन गले के नीचे खिसकाए गए ब्रेड के नर्म टुकड़े उसे किसी तरह जिंदा रखे हुए हैं। इस हालत में बिस्तर पर पड़े-पड़े अरुणा को ३७ वर्ष हो गए  हैं और अब वह ६४ वर्ष की हो चुकी हैं.

 

दुखद तथ्य यह भी है कि अरुणा की इस हालत का जिम्मेदार अपराधी सात साल की कैद काट कर रिहा भी हो चुका है लेकिन अरुणा बिना कोई अपराध किये आज भी सजा भुगत रही है और न तो जी ही पा रही है और न ही इस कष्टप्रद जीवन से आजाद हो पा रही है.

 

इस दुखद कहानी में मानवता के लिहाज से एक सुखद पहलू यह भी है कि जिस केईएम हॉस्पिटल में अरुणा के साथ यह घटना हुई उसी हास्पिटल प्रशासन, उसके डाक्टरों, स्टाफ और सहकर्मियों ने अरुणा की जिस जतन से देखभाल और सेवा की वो अपने आप में मानवता की एक बहुत बड़ी मिसाल है.  इस जतन से की गई देखभाल और सेवा का ही कमाल है कि इतने वर्षों तक लगातार बिस्तर पर पड़े रहने के बावजूद अरुणा की पीठ पर एक भी घाव नहीं हुआ है.  

 

अरुणा के लिए मौत की इजाजत मांगने वाली एक पिटिशन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए पेश की गयी. अरुणा की ओर से उनकी मित्र पिंकी वीरानी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर भोजन बंद करने की इजाजत माँगी है ताकि उसे इस नारकीय जीवन से मुक्ति मिल सके। अरुणा के साथ ही एक बार फिर दया मृत्यु के कानूनी अधिकार पर चर्चा उठी है।

 

पिंकी ने अरुणा की ओर से याचिका दाखिल कर संविधान में दिए गए जीवन के अधिकार की ही दुहाई दी है। उन्होंने कहा है कि जीवन के अधिकार में सम्मान सहित जीने का अधिकार शामिल है और अरुणा जो जीवन जी रही है उसे मानव जीवन नहीं माना जा सकता। याचिका में अस्पताल प्रशासन की ओर से अरुणा को दिया जा रहा भोजन बंद करने का निर्देश मांगा गया है। इसके साथ ही उसकी मेडिकल रिपोर्ट भी कोर्ट में पेश किए जाने की मांग की गई है।

 

यह तो है इस कहानी का एक पहलू जहाँ कि उज्जवल भविष्य का सपना देखने वाली एक युवा लड़की का जीवन विकृत मानसिकता के एक रोगी ने ना केवल बर्बाद कर दिया बल्कि उसे जीते-जी ही इस स्थिति में पहुंचा दिया कि जहाँ न तो वह जिन्दा है और न ही मुर्दा.

 

अब दूसरा पहलू भी देखिये. अरुणा की पिटिशन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के लिए मंजूर तो कर ली लेकिन चीफ जस्टिस के.जी. बालकृष्णन और जस्टिस ए.के. गांगुली व बी.एस. चौहान की बेंच ने कहा कि भारतीय कानून के तहत हम किसी भी शख्स को मरने की इजाजत नहीं दे सकते। इस पर कोर्ट ने केंद्र सरकार, महाराष्ट्र सरकार, मुंबई नगर निगम, केईएम अस्पताल और मुंबई पुलिस कमिश्नर से जवाब तलब किया है। कोर्ट ने माना कि इच्छा मृत्यु के फैसले का लोग अपने वृद्ध परिजनों के मामले में दुरुपयोग भी कर सकते हैं. याचिकाकर्ता पिंकी वीरानी दलीलों की भरमार के बीच अकेली पड़ गईं. कोर्ट ने अभी इस मामले में फैसला सुरक्षित रखा है.

 

http://stpl-india.in/SCJFiles/2011_STPL(Web)_104_SC.pdf

 

ये कैसा क़ानून है जो कि न तो जीने ही देता है और न ही मरने देता है. न तो हत्यारों, बलात्कारियों, देशद्रोहियों, आतंकवादियों को कड़ी सजा दे पाता है, न ही नागरिकों का जीवन सुरक्षित रख पाता है. कमजोर क़ानून, मानवाधिकार, कड़ी सजा और सबूतों के अभाव की आड में हत्यारे और बलात्कारी बच निकलते हैं और फिर से नागरिकों का जीवन असुरक्षित हो जाता है. देशद्रोही और आतंकवादी जीवित रखे जाते हैं और इस बात का इन्तजार किया जाता है कि कोई विमान अपहरण या किसी बड़े नेता या उसके परिजनों का अपहरण कर आतंकवादी अपने साथियों को छुडा लें और फिर से नए जोश और ताकत से देश के खिलाफ साजिश करें, युद्ध छेड़ें और आतंकवाद फैलाएं.  इस बात की क्या गारंटी है ही वहशी बलात्कारी फिर से बलात्कार नहीं करेगा और जघन्य हत्यारा फिर हत्या नहीं करेगा. क़ानून न तो अरुणा के अपराधी को कड़ी सजा दे पाया और न ही उसके कष्टों का अंत होने देना चाहता है.

 

आपको क्या लगता है? क्या अरुणा जो जीवन जी रही है उसे मानव जीवन कहा जा सकता है?  क्या क़ानून का ये फैसला उसके कष्टदायक जीवन को बढाकर उसके साथ न्याय करेगा, उसे खुशी देगा? क्या ३७ साल से मृतप्राय पडी अरुणा ‘युथनेशिया’ अर्थात अच्छी मौत की भी हकदार नहीं है? क्या हम अरुणा के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या हमारी आवाज कोई मायने नहीं रखती? क्या हम अकेली पड़ गई पिंकी वीरानी के साथ आवाज भी नहीं मिला सकते? क्या चुप रहकर हम भी अपराध नहीं कर रहे?

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