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‘टॉप ब्लॉगर’ – शाही जी की कलम से

अंगार
अंगार
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प्रस्तावना 

 

अपनी पिछली रचना ‘फिर मिलेंगे चलते-चलते’ पोस्ट करने के बाद मुझे याद आया कि मैं आदरणीय शाही जी से किया अपना वादा भूल गया था. दरअसल जब उनकी पोस्ट ‘यारों मैं भी कवी हूँ’ अपने ब्लॉग पर डाली थी, तब उन्होंने अपनी एक पुरानी पोस्ट ‘टॉप ब्लॉगर’ की भी इसी प्रकार ‘सद्गति’ करने के लिए कहा था और मैंने ऐसा करने का वादा भी उनसे किया था. 

 

लेकिन ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ की तर्ज पर मुझे लगता कि शायद यह बेहतर समय है जब कि मैं इस बेहतरीन पोल-खोल रचना को एक बार फिर से अपने ब्लॉग के माध्यम से पोस्ट कर सकता हूँ क्योंकि आज भी टॉप ब्लॉगर उन्हीं हथकंडों को अपनाते हैं जिन्हें कि शाही जी अपनी इस पुरानी पोस्ट ‘टॉप ब्लॉगर’ में काफी पहले बता चुके हैं. यकीन नहीं आता खुद ही तो इस बात की पुष्टि कर सकते हैं. तो चलते-चलते पेश है शाही जी की रचना –  

 

टॉप ब्लॉगर 

 

मेरा लटका हुआ मुंह देखकर ज्ञानी जी आज फ़िर परेशान थे । उन्होंने किसी प्रसन्न भक्त द्वारा प्रदत्त काजू की बर्फ़ी का डब्बा खोलकर मेरे सामने कर दिया । जानते थे कि इस पेटू और मधुरम प्रियम तथा परले दर्ज़े के भोजनभट्ट अदत्तक पुत्र के चेहरे पर यदि फ़ांसी के फ़ंदे पर भी कोई वस्तु मुस्कान ला सकती है, तो वो बस सुस्वादु मिष्टान्न और अच्छे पकवान ही हो सकते हैं । और जैसा कि ज्ञानी जी का अनुमान था, मेरे चेहरे पर सचमुच रौनक आ गई और मैं चोटी का ब्लाँगर न बन पाने का अपना दर्द थोड़ी देर के लिये भूल गया । बर्फ़ियां बिल्कुल ताज़ी और अभी भी ढीली और गीली थीं । जब तक मैं डब्बे में हाथ डालकर एकसाथ चार-पांच बर्फ़ियां उठाकर मुंह में ठूंस पाता, मेरी राल टपक कर ज्ञानी जी के डब्बा पकड़े हाथ पर तार की तरह छितरा चुकी थी । 


‘ओए पुत्तर! तू कभी नहीं सुधरने वाला’ । दिल के हाथों मजबूर ज्ञानी जी ने ज़रा भी बुरा नहीं माना, और प्यार से मेरी ओर देखते मेरी जेब से रूमाल निकाल कर हाथ पोंछने लगे । फ़िर बोले, ‘खूब खा ले, फ़िर बता कि आज तेरी परेशानी का सबब क्या है’ ।
 


लगभग आधे डब्बे की बर्फ़ी ताबड़तोड़ उदरस्थ करने के बाद मैंने तृप्तिभाव से अपने होठों पर ज़बान फ़ेरी, ठीक वैसे ही, जैसे बिल्ली ढेरों मलाई चाटने के बाद अपने मुंह पर ज़बान फ़ेरती है, फ़िर आराम से पिलर पर पीठ की टेक लगाकर वहीं बैठ गया ।
 


‘अब बता, क्या बात है’ । ज्ञानी जी ने मेरी संतुष्टि से परम संतुष्ट होते हुए पूछा । उन्होंने एक भी बर्फ़ी नहीं खाई, जैसे मेरे खाने से ही उनका पेट भर गया हो ।
 


‘क्या बताऊं ज्ञानी जी, आज वाला मामला बताने में मुझे थोड़ी शर्म भी आ रही है, और संकोच भी हो रहा है’ । मैं गर्दन को एक तरफ़ थोड़ा झुकाते हुए धीरे से बोला ।
 


‘अब बता भी दे, दाई से पेट और बाप से वेट नहीं छुपाते बेटा! बुरी बात है, चल बोल दे’ । ज्ञानी जी ने पुचकारते से स्वर में कहा ।
 


‘दरअसल आजकल जंक्शन के जितने भी काका, बाबा और नाना लेबेल के लेखक और रचनाकार हैं, सबने लिखना-विखना छोड़कर एक दूसरे प्रकार का एंगेजमेंट अपना लिया है, जिससे मुझे बड़ी कोफ़्त हो रही है । देखादेखी अब मुझे भी अपने अंदर थोड़ा ढीलापन सा महसूस होने लगा है’ । मैंने दिल की बात ज़ुबान पर लाते हुए बता दिया ।
 

 

‘तो तू इत्ती सी बात के लिये परेशान है!’ ज्ञानी जी ने जैसे राहत की सांस लेते हुए कहा – ‘अरे मूरख, लगातार लिखते-लिखते तो मुनि व्यास और चित्रगुप्त जी को भी विश्राम की ज़रूरत पड़ जाती है, ये काका बाबा तो फ़िर भी कलयुगी ही हैं नऽ? होता है पुत्तर! यह स्वाभाविक है । कोल्हू के बैल को भी कभी तो थोड़ा आराम चाहिये? लगातार लिखते तेरी भी तो तोंद थोड़ी और बाहर को भागी आ रही है, जो सेहत और जवानी के बचे हुए खंडहर के ख्याल से ठीक नहीं होती पुत्तर! वे लोग भी कुछ दिनों में फ़िर लाइन पर आ जाएंगे, इसमें परेशानी की क्या बात है?’

 

 

परेशानी की बात ये नहीं है ज्ञानी जी कि उन्होंने लिखना छोड़ दिया है । परेशानी की बात ये है कि अजीब सी रस्साकशी मची हुई है’ । मैंने स्वर को थोड़ा रहस्यमय बनाते हुए कहा । 


‘वो क्या पुत्तर?’ ज्ञानी जी के लाल सुर्ख चेहरे पर उत्सुकता के भाव आ गए ।
 


‘वो जो ऊपर दाहिनी तरफ़ ‘ज़्यादा चर्चित’, ‘ज़्यादा पठित’ वाले वर्गीकरण नहीं होते हैं? जिसके बाद लेखक रचनाकारों को बाक़ायदा माला पहना कर दीवार पर सुशोभित किया जाता है, उस पटल पर भयानक युद्ध छिड़ा हुआ है, और सभी उसी में व्यस्त हैं’ । मैंने एक लम्बी ठंडी सांस भरते हुए अपने दर्द की एक परत और खोली ।
 


‘ओह, तो ये बात है!’ ज्ञानी जी ने कुछ ताड़ते हुए से स्वर में गर्दन हिलाई और पूछा, ‘उसमें तेरी क्या पोजीशन है पुत्तर?’


‘मैं उसमें कहीं नहीं हूं ज्ञानी जी!’ मेरे मुंह से एक सर्द कराह निकली ।


ज्ञानी जी का चेहरा गम्भीर हो गया । माथे पर चिन्ता की ढेरों सिलवटें उभर आईं । बुझे से स्वर में बोले – ‘मुझे पहले ही अंदेशा होता था कि एक दिन ऐसा आ सकता है, जब तू इन बातों में उलझेगा, आज वो दिन आ ही गया । अरे पुत्तर! इन चक्करों में मत पड़ । ये वो चक्कर हैं, जो तुझे रचनात्मकता से दूर लेजाकर तेरी लेखनी की धार को कुंद बना देंगे, और तेरी भाषा जोड़तोड़ वाली होने लगेगी । मौलिकता खतम हो जाएगी, और बनावट का पुट आ जाएगा । उसके बाद तू कहीं की ईंट और कहीं की रोड़ेबाज़ी करेगा, और रचनाएं भानुमती का पिटारा हो जाएंगी, समझा?’


मैं ज्ञानी जी के जटिल ज्ञान से संतुष्ट नहीं हुआ । अपना तर्क़ रखते हुए कहा, ‘लेकिन ज्ञानी जी, जैसे मूंछ के बाल होते हैं, वीरों की चौड़ी छाती होती है, वैसे ही नाक भी तो कोई चीज़ होती है? क्या हैसियत रहेगी मेरी अपनी बिरादरी में, यदि नाक न रही?’ सारा पानी पानी का पानी हो जाएगा । महान कवि रहीम ने नहीं कहा था, ‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून’ ।


ज्ञानी जी से कुछ कहते न बन पड़ा । काफ़ी देर तक बाहर सड़क पर आती जाती गाड़ियों को देखते कुछ सोचते रहे, फ़िर धीरे से बोले, ‘तेरी अपनी भी कुछ क्षमता है? मेरा मतलब कितने वोट जुटा सकता है ‘ज़्यादा चर्चित’ की चोटी पर पहुंचने के लिये?’

 

‘कुछ कह नहीं सकता ज्ञानी जी । टिप्पणीकारों के पर्याप्त पाँकेट्स कहां बना पाया मैं कभी । अपनी क्षमता ही होती, तो दुख किस बात का था ?’ मैंने भारी मन से कहा – ‘फ़ोटो चिपकने के लिये व्यूज भी तो चाहिये शायद, अर्थात ‘ज़्यादा पठित’ भी होना चाहिये । मुझे ठीक से नहीं पता कोई मुझे पढ़ता भी है या नहीं’ ।

 
‘लेकिन पुत्तर मैं फ़िर भी यही कहूंगा कि जिधर तेरी सोच जा रही है, समय है अभी कि वापस आ जा, मत जा अंधे कुएं की ओर । तेरी खुशी के लिये मुझे खोपड़ी लड़ानी तो पड़ेगी ही, लेकिन यह सब ठीक नहीं है । महर्षि बाल्मीकि, सूर और तुलसी ने यदि शुरू में ही पाठकों आलोचकों की संख्या के बारे में सोचा होता, तो शायद अमर न हो पाते, मान जा पुत्तर, मान जा’ । ज्ञानी जी के स्वर में एक पिता का सा कातर भाव था ।

 


मैं मायूस हो गया । मुझे लगा कि ज्ञानी जी शायद मेरा दर्द नहीं समझ पा रहे, लेकिन मेरे चेहरे के भाव ज्ञानी जी के वात्सल्य को विचलित कर रहे थे । अन्त में उन्हें अपनी भावनाओं के सामने हथियार डाल देना पड़ा । कुछ सोचकर उन्होंने पूछा – ‘कोई लेख है तेरा इस समय फ़्रंट पर?’


‘हां हैं तो एक-दो’ । मैंने नाम बताया, फ़िर उत्सुकता जताई, ‘लेकिन क्यों पूछ रहे हैं?’

 

‘अब जहां प्रतिभा जवाब देने लगे, वहां अपनी इंडियन जुगाड़ टेक्नोलोजी का कुछ पेंच तो सोचना पड़ेगा न पुत्तर!’ ज्ञानी जी ने अपनी सफ़ेद मूँछों पर उंगलियां फ़ेरते हुए, मुझे थोड़ी तिरछी नज़र से देखते हुए कहा ।

 
‘पता नहीं कौन सी खिचड़ी पक रही है आपके दिमाग में’ । मैं कुछ अनमने से भाव से बोला ।

 


‘जा बगल से इंदरजीते को बुला ला । कहना अपना लैपटाँप और नेट कनेक्ट वाला डाटाकार्ड भी लेता आए’। ज्ञानी जी ने कहा ।


मैं कुछ असमंजस की सी स्थिति में इंदरजीत प्रा जी के यहां चल पड़ा । समझ नहीं पाया कि आखिर ज्ञानी जी क्या करना चाहते हैं । थोड़ी देर में ही मैं इंदरजीत भाई साहब और लैपटाँप आदि के साथ लौट आया । ज्ञानी जी ने इंदरजीत प्राजी को समझाते हुए कहा, ‘इंदरजीते तेरे को आज शाही पुत्तर के यहां रात बितानी होगी अपने इंटरनेट के साथ । रोटी-राटी वहीं इकट्ठे दोनों भाई खा लेना, लेकिन सोने को नहीं मिलेगा, रतजगे का काम है समझ लो’ ।


फ़िर ज्ञानी जी ने मुझे समझाया – ‘जंक्शन का लाँगइन पेज कहां जाकर क्रियेट करना होता है, तुम इंदरजीते को समझाओगे, फ़िर अलग-अलग फ़र्ज़ी नामों से याहू, रेडिफ़मेल और जीमेल आदि पर पहले मेल आईडी, फ़िर उसी के आधार पर अपना यूजरनेम प्राप्त करना है । ऐसे पांच-सात यूजर्स बना लेना काफ़ी होगा । ध्यान रहे, अवतार की जगह पर कोई फ़ोटो नहीं डालना है, यूं ही छोड़ देना है, ताक़ि कोई माई का लाल ज़िन्दगी भर मगज़मारी करके भी इन यूजर्स का कोई वज़ूद है भी या नहीं, न जान सके । बस और क्या! इंदरजीते अपने नेट पर तेरे लेख में टिप्पणी लिखेगा, और तुम अपने नेट पर उस टिप्पणी का जवाब लिखोगे । हर टिप्पणी अलग-अलग यूजर्स के नाम से लिखी जाएगी, भाषा एक-दूसरे से थोड़ी बदल लिया करना, ताकि साम्य का आभास न हो । वैसे चिन्ता की कोई बात नहीं है, क्योंकि ये सब कोई देखता वेखता नहीं है । एक से एक सौम्य और लुभावन फ़र्ज़ी चेहरे कभी मूर्खतापूर्ण, तो दूसरी ही पोस्ट में ऐसी विद्वता की बातें लिख रहे हैं कि हैरत होती है । बस इतनी टिप्पणियां मार देनी हैं, कि सारे रिकार्ड ध्वस्त हो जायं । समझ गए कि अभी और समझाऊँ?’ ज्ञानी जी बोले । मैं मंत्रमुग्ध सा उनका चेहरा देखे जा रहा था । गज़ब की सूझ-बूझ! ज्ञानी जी जैसे महापुरुष का अदत्तक पुत्र हूं, यह सोचकर मुझे अपने ऊपर प्यार आने लगा ।

 

लेकिन फ़िर मेरी बुद्धि अटक गई, बोला, ‘परन्तु इस तरह एक ही मुद्दे पर कितनी टिप्पणियों के बारे में सोच पाएंगे हम? उनके जवाब भी तो लिखने होंगे?’

 

 

हां, तो इसमें कौन सी विद्वता की ज़रूरत है?’ ज्ञानी जी ने ज्ञान देते हुए बताया – ‘इंदरजीते का फ़र्ज़ी यूजर लिखेगा, ‘एक डाल पर तोता बोले’ ।


तेरा जवाब होगा- ‘एक डाल पर मैना’ ।


फ़िर वो लिखेगा- ‘दूर-दूर बैठे हैं लेकिन’ ।

 

तू जवाब देगा- ‘प्यार तो फ़िर भी है ना, बोलो है ना, है ना है ना’ । इसी तरह आगे बढ़ते जाना है, बस’।

 

गर्दिश में भी मेरी हंसी छूट गई, बोला- ‘यह भी कोई ब्लाँगवार्ता हुई ज्ञानी जी? पढ़ने वाले क्या सोचेंगे?’

‘अरे पागल! इतना नहीं सोचा जाता, न ही कोई देखता है इन चीज़ों को । कैलकुलेशन करना कम्प्यूटर का काम होता है, किसी आदमी का नहीं, समझे? मशीन को मात्र इस बात से मतलब होता है, कि जवाब सहित टिप्पणियों की संख्या कितनी हुई, बस वह लेख स्वत: ऊपर धकेल दिया जाता है । किसी की नज़र पड़ती भी है तो मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाता है, बोलता कुछ नहीं । उल्टे तसल्ली होती है कि उसे भी आगे का रास्ता मिल गया । जैसे भ्रष्टाचार के पैसे में हिस्से के लिये सत्ता और विपक्ष दोनों एक हो जाते हैं, कुछ वैसी ही आपसी अंडरस्टैंडिंग इस खेल में भी बन जाती है ।

 


तभी मेरा मन फ़िर खटका । मैने शंकित मन से ज्ञानी जी से पूछा, ‘’ज़्यादा चर्चित’ का मसला तो हल हो गया, लेकिन ‘ज़्यादा पठित’ का क्या होगा?’


‘ओए खोत्तेया, रहा न बुद्धू का बुद्धू!’ ज्ञानी जी ने समझाया – ‘आधी रात में टिप्पणियों और जवाब का काम पूरा हो जाएगा, समझा? बाक़ी की आधी रात दे दनादन, क्या!’

 

‘क्या दे दनादन, मैं समझा नहीं’ । मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से अपने तारणहार ज्ञानी जी को देखा ।

 
‘बेवक़ूफ़ कहीं का! पता नहीं कैसे ब्लाँगर बन गया’। ज्ञानी जी बिफ़रकर बोले, ‘अरे नालायक पुत्तर, तू और इंदरजीते मिलकर आधी रात भर में दो नेट के माध्यम से लेख के वेबपेज पर दो-चार हज़ार हिट नहीं मार सकते? क्या कोई पहचान रखी जाती है कि किसने कहां खोलकर तुम्हारा लेख पढ़ा, आयं? ज्ञानी जी ने अपने ज्ञान का पटाक्षेप करते हुए कहा, और तख्त की ओर चले गए ।

 


अगले हफ़्ते जागरण जंक्शन के मंच पर मेरी जैजैकार हो रही थी, और बधाइयों के तांतों का जवाब लिखते-लिखते मेरी उंगलियां टेंढ़ी हुई जा रही थीं ।

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