Menu
blogid : 3502 postid : 876

लोकपाल बिल का ड्रामा

अंगार
अंगार
  • 84 Posts
  • 1564 Comments

आज के समय में टेक्नोलॉजी अपने चरम पर है और टेक्नोलोजी का फायदा चाहे किसी को भले न हुआ हो पर मीडिया ने इसका जमकर फायदा उठाया है | आज के समय में मीडिया चाहे तो किसी को भी जीरो से हीरो बना दे या हीरो से जीरो बना दे| अब खबरे नहीं छपती बल्कि सीधे ‘तहलका’ मचता है, अब सीधे सीडी कांड होते है| बोरवेल में बच्चे तो गिरते रहते हैं पर मीडिया केवल किसी एक को ही बचाता है| इंटरव्यू लिए नहीं जाते बल्कि पूर्वनियोजित होते हैं| अन्ना हजारे की महानता से मुझे इनकार नहीं है पर इसमें इलेक्ट्रोनिक मीडिया और साइबर क्रान्ति का भी बड़ा योगदान है| फेसबुक, गूगल और ट्विटर जैसी सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स आज लोगों को जोड़ने और विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त जरिया बन चुकी हैं| ये मीडिया ही है जो आज अन्ना हजारे की तुलना महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण से होने लगी है, लेकिन जरा गौर कीजिये कि जब महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन, अनशन किये तब ऐसा कुछ नहीं था बल्कि दुर्गम और पिछड़े इलाकों में तो कई-कई दिन तक अखबार भी नहीं पहुँच पाते थे जबकि आज अति-दुर्गम क्षेत्रों तक भी कम्प्यूटर और इन्टरनेट के पहुंच जाने से आदमी पूरे विश्व से हरदम जुडा हुआ है | कहने का लब्बो-लुआब ये है कि अन्ना और बाबा तो इस देश में बहुत हैं पर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव बनाए जाते हैं| इस देश में धोती-चद्दर बांधे और दाढ़ी रखे हुए कितने ही बाबा हैं पर जो चालाक होगा, टैक्नोलोजी और मीडिया को साथ लेकर चलेगा, वो बड़ा बाबा बन जाएगा| बिहार से शोषित और गरीब बाहर निकलता है तो मजदूर बनके लेकिन जो तेज होता है वो मजदूर से मिस्त्री और मिस्त्री से ठेकेदार बनता है|

 

अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल की मांग और वेब ने पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ दिया है, भले ये बात और है कि बहुतों को न तो इसकी जानकारी है और न ही इससे कुछ लेना-देना है| अब भला छोटे-२ बच्चों को इससे क्या लेना देना, पर लोग हैं कि उनके कैंडल मार्च निकलवा रहे हैं| मेरा दावा है कि फेसबुक जैसी किसी सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर आप केवल अन्ना हजारे या लोकपाल लिखकर आगे भले पामेला एंडरसन या ब्रिटनी स्पीयर्स की कहानी लिख दो, पोस्ट करते ही कितने ही लोग बिना पढ़े ही ‘Like’ पर क्लिक कर देंगे बल्कि कितने ही लोग तो कमेन्ट भी कर देंगे- ग्रेट, बहुत बढ़िया, अन्ना जिंदाबाद, सरकार मुर्दाबाद….|

 

चाहे लोकपाल बने या जन लोकपाल, टीम अन्ना का हो, अरुणा का हो या सरकारी, किसी से कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला | भ्रष्टाचार इस देश में क्रोनिक डिसीज बन चुका है, इसलिए एकदम से ये बीमारी ठीक नहीं होने वाली| अगर इस देश से भ्रष्टाचार का रोग मिटाना है तो कुछ नुस्खे अपनाकर इसका धीरे-२ इलाज करना होगा | कुछ छोटी-२ पर अहम् बातें जिन पर विचार किया जाना चाहिए, उनका वर्णन यहाँ पर कर रहा हूं –

 

नैतिकता और आचरण – हमारे देश में इस समय नैतिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है| पहले प्राइमरी स्कूलों या सरकारी स्कूलों में नैतिक शिक्षा पढ़ाई जाती थी| लोग अपने बच्चों को गीताप्रेस, गोरखपुर की किताब लाकर देते थे जिनमें नैतिक शिक्षा से प्रेरित कहानियां रहती थीं| शिक्षा के आधुनिकीकरण और व्यवसाईकरण ने अधकचरे प्रोडक्ट तो बढाए पर नैतिक शिक्षा गायब हो गई| न जाने ये कैसी शिक्षा है जिसमें कि छात्र ९८-१००% तक नंबर ला रहे हैं| हमारे समय में ६०% नंबर लाना बहत बडी उपलब्धि होती थी और डिस्टिंक्शन (७५%) पर तो आदमी जिंदगीभर लोगों को बड़े गर्व से बताता था कि उसकी फलां विषय में डिस्टिंक्शन थी| हमारे मास्टरजी साफ़-साफ़ कह देते थे कि बेटा चाहे डिट्टो किताब उतार दे पर ५ में से ३ नंबर से ज्यादा किसी हाल में नहीं दूंगा| आज देश में इसी नैतिक शिक्षा और आचरण की बहुत कमी है और भ्रष्टाचार का ये मूल कारण है| कितने लोगों में ये नैतिकता है की वे अपना अपराध या गलती स्वीकार कर सकते हैं या अपनी गलती पर पश्चात्ताप करते हैं | यहाँ तक कि कई बार ऐसा देखा गया है कि अदालत को भी मजबूर होकर ये कहना पड़ा कि अदालत को पता है कि अपराधी ने अपराध किया है पर सबूत नहीं है| कई बार थर्ड अम्पायर भी चूक जाता है पर बैट्समैन को पता होता है कि गेंद उसके बल्ले पे लगी या नहीं| किसी जमाने में सुनील गावस्कर के बारे में प्रसिद्द था कि अम्पायर के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ही स्वयं ही पेवेलियन लौट जाते थे क्योंकि उन्हें स्वयं पता होता था कि वे आउट हैं| पर अब देखिये, खिलाड़ी आउट होने के बावजूद इस बात का इन्तजार करते हैं कि शायद टैक्नोलोजी और थर्ड अम्पायर चूक जाएँ और वे बच जाँय|

 

बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की प्रकरण सामने आने के बाद अमेरिका के लोग बिल क्लिंटन से नाराज हुए तो केवल इसलिए कि उन्होंने सच को छुपाने की कोशिश की, न कि मोनिका लेविंस्की से उनके संबंधों की वजह से| और जब उन्होंने सच स्वीकार कर लिया तो लोगों ने उन्हें माफ़ भी कर दिया क्योंकि वे अपना काम बेहतर तरीके से कर रहे थे| हैन्सी क्रोनिये ने सट्टेबाजी की बात स्वीकार कर ली थी क्योंकि कहीं उनकी अंतरात्मा उन्हें धिक्कार रही थी, पर अजहरुद्दीन और जडेजा की अंतरात्मा को क्या हुआ?  बीसीसीआई भी इस बात को जानती थी कि ये दोनों दोषी हैं और इसी वजह से उन्हें आगे क्रिकेट नहीं खेलने दिया गया पर इन्होने अपना अपराध कभी स्वीकार नहीं किया| और तो और अजहरुदीन तो सांसद भी बन गए|

 

अभी  हाल ही में विश्व प्रसिद्द मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक ने फोन हैकिंग में नाम आने के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इंग्लैंड के राष्ट्रीय अखबारों में बाकायदा अपने हस्ताक्षर से ‘We are sorry’ के विज्ञापनों की सीरीज चलाई और लोगों से माफी माँगी| कितने लोग इतना बड़ा कलेजा रखते है?

http://guardian.co.uk/media/interactive/2011/jul/15/rupert-murdoch-phone-hacking-apology-ad

 

हमारे देश के कई बड़े-बड़े नेता इस समय भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बंद हैं लेकिन कोई भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेने तक को तैयार नहीं है| किसी भी टीम के खराब प्रदर्शन की नैतिक जिम्मेदारी कैप्टेन की होती है और स्वयं अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद टीम की गलतियों का खामियाजा उसे भुगतना पड़ता है, कई बार तो कैप्टेनशिप भी छोडनी पड़ती है| पर कैप्टेन सिंह दावा करते हैं कि वे अपनी योग्यता के चलते इस पद पर हैं और उन्होंने अपने जीवन में कभी भी स्वयं खराब प्रदर्शन नहीं किया| वे अपनी टीम के खराब प्रदर्शन की तनिक भी नैतिक जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं हैं|

 

भ्रष्टाचार तो बाद की बात है, पहले आचरण सुधारना जरूरी है| हममें से कितने लोग हैं जो सड़क पर थूकने या कूड़ा-कचरा फेंकने से पहले एक बार भी सोचते हैं ? कितने लोग हैं जो पान-गुटका दीवारों पर या सड़कों पर थूकने से पहले एक बार भी विचार करते हैं ? किसी भी सरकारी या गैर सरकारी संस्थान में जाकर देख लीजिये दीवारों और टायलेट में पान-गुटका थूका हुआ मिलेगा| चूंकि जन-सुविधाओं के लिए बनाए गए शौचालयों पर अतिक्रमण कर लिया जाता है, इसलिए जनता मूत्र विसर्जन दीवारों पर करती है| धार्मिक आस्था के नाम पर हजारों लाखों लोग किसी एक जगह पर जाकर उसे महीनों के लिए सडा जाते हैं और धर्म और श्रद्धा के नाम पर उन पर कोई भी नियम क़ानून लागू नहीं होता भले वो उत्पात करे, सुल्फा-गांजा का खुले आम सेवन करें या संभ्रांत घरों की महिलाओं को छेड़ें|

 

हमारे शहर में पिछले कुछ समय से पोलीथिन इस्तेमाल न करने का अभियान चल रहा है| शुरू-शुरू में तो यह अभियान ठीक-ठाक चला, पर धीरे-२ चोरी छुपे सभी दुकानदार और ग्राहक फिर से पोलीथिन इस्तेमाल करने लगे हैं| वजह है लोगों में नैतिकता और सदाचरण का अभाव| अगर लोग स्वयं आगे बढ़कर पहल करें और इमानदारी से सहयोग करें तो ही यह अभियान सफल हो सकता है अन्यथा किसी भी सूरत में नहीं| सीधी सी बात है, जनता आज की सोचती है, कल की नहीं| वो जमाने गए जब लोग ये सोच के पेड़ लगाते थे कि भविष्य में हम नहीं तो कोई और इसके फल खायेगा| कहने का तात्पर्य यही है कि यदि देश के नागरिकों के चरित्र में  नैतिकता और सदाचार आ जाए तो इमानदारी तो स्वयं ही आ जायेगी और भ्रष्टाचार तो पनप ही नहीं पायेगा|

 

राजनीति में शिक्षा की अनिवार्यता- कितने आश्चर्य की बात है कि हमारे देश में कोई अनपढ़ भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तक बन सकता है| कोई भी एरा-गैरा नत्थूखैरा नेता रात-दिन कड़ी मेहनत से पढकर इस देश की सबसे बड़ी नौकरी पाए आई ए एस के ऊपर बैठकर उससे खैनी तक रगडवा सकता है| कोई अपने बच्चों को आई ए एस बनने को क्यों कहे, नेता क्यों न बनाए? आई ए एस का बॉस आई ए एस न हो तो कम से ग्रेजुएट तो हो, कम से कम ठीक-ठाक पढ़ा-लिखा तो हो | जब नौकरी में पद के हिसाब से शक्षिक योग्यता चाहिए होती है तो फिर मंत्रालय विशेष के लिए भी वैसी ही शैक्षिक योग्यता क्यों न हो? यानी, रेल मंत्री या परिवहन मंत्री ऑटोमोबाइल या मैकेनिकल इन्जीनियर क्यों न हो ?  कहने का तात्पर्य है कि सांसदों-विधायकों के लिए कोई उचित शैक्षिक योग्यता की अर्हता क्यों नहीं है? जब नौकरी में रिटायरमेंट की उम्र है तो राजनीति में क्यों नहीं है? मुझे पूरा विशवास है कि यदि राजनीति में पढ़े-लिखे और युवा लोग हों तो भ्रष्टाचार भी कम हो जाएगा |

 

लोकतंत्र और राजशाही में फर्क करना जरूरी है| राजीव गांधी की राजनीतिक योग्यता बस इतनी ही थी कि वे श्रीमती इंदिरा गांधी के पुत्र थे| वे बिना पत्ता भी हिलाए सीधे प्रधानमंत्री बने| क्या उनसे लायक कोई और नेता नहीं था देश में ? सोनिया गांधी भी सीधे घर से निकल कर संसद पहुँच गई और इस समय सरकार और देश को आपरेट कर रहीं हैं| राहुल और प्रियंका भी जब चाहें तब सरकार संभाल सकते हैं| तो क्या ये लोकतंत्र है या राजशाही? कांग्रेस के वो बड़े-२ नेता जो अच्छे पढ़े-लिखे और विद्वान है, जिहोने राजनीति की सीढियां लोकतंत्र के रास्ते पर चलकर चढी है, वर्षों संघर्ष किया है, उनकी योग्यता क्यों तलवे चाट रही है| मंत्री बनने की योग्यता क्यों एक परिवार की वफादारी मात्र बनकर रह गई है| मुझे अभी तक याद है कि जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था, तब कई चमचे-चमचियां रो-रोकर आसमान सर पर उठाये हुए थे कि मैडम हाँ कर दें| बाद में वे सब शोकग्रस्त चम्मच मंत्री बन गए| अक्सर कहा जाता है कि काँग्रेस की सरकार/ भाजपा की सरकार,……भई क्या केवल काँग्रेस या भाजपा के लोग ही वोट डालते हैं, ये सरकार आम आदमी की सरकार क्यों नहीं होती?

 

द्वि-दलीय प्रणाली – अमेरिका की तर्ज पर देश में सिर्फदो ही राजनैतिक पार्टियां होनी चाहिए | इस समय हमारे देश में कितनी राजनैतिक पार्टियां हैं ये भी सामान्य ज्ञान का प्रश्न हो सकता है| कोई भी १०-२० लोग मिलकर पार्टी बना लेते है और बाद में सरकार को समर्थन के नाम पर सौदेबाजी किया करते हैं| उत्तर प्रदेश के एक जाट नेता तो इसमें विशेष दक्षता रखते हैं| हर चुनाव में २-३ सीट निकालकर ये सरकार से सौदेबाजी किया करते हैं| और यही काम निर्दलीय चुने हुए नेता करते हैं| इस खरीद-फरोख्त को सब जानते हैं, पार्टियां जानती हैं, चुनाव आयोग जानता है, राज्यपाल से राष्ट्रपति तक सब जानते हैं, यहाँ तक कि संसद में नोटों की गद्दियाँ तक लहरा दी जाती हैं पर सब चुप हैं, क्योंकि किसी में भी नैतिकता नाम की चीज ही नहीं है|

 

यदि देश में द्वि-दलीय राजनीतिक प्रणाली संभव न हो तो कम से कम चुनाव आयोग ऐसे कड़े क़ानून बनवाए कि इस तरह की खरीद-फरोख्त, दल-बदल की संभावना ही खत्म हो जाय और ये राजनीतिक ब्लैकमेलिंग न हो| यदि दल-बदल पर ऐसा क़ानून बनाया जाय कि एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने के लिए ३ या ५ साल से पहले अनुमति न मिले तो फिर देखिये कौन कोई पार्टी छोड़ता है और कैसे सौदेबाजी होती है? इसी तरह से मिली-जुली सरकार बनाने में भी ऐसे नियम बनाएँ जांय कि मंत्री सिर्फ प्रमुख पार्टी के ही बनाए जांय, कोटा सिस्टम न रहे,  फिर देखिये सरकार भी मजबूत होगी, मंत्रालयों की सौदेबाजी भी नहीं होगी और भ्रष्टाचार भी कम होगा| तब पता चलेगा कि कौन-२ देशभक्त पार्टियां हैं जो नैतिक आधार पर सरकार को निस्वार्थ समर्थन देती है|

 

इस समय अन्ना हजारे का आंदोलन बड़े ही नाजुक मोड पर है पर आश्चर्य इस बात का है कि न तो सरकार और न ही टीम अन्ना इसकी संवेदनशीलता को समझ पा रहे हैं| सरकार मौका तलाश रही है कि कब अपना वार करे, जैसे बाबा के कपडे उतरवा कर दौड़ा दिया वैसे ही अन्ना की धोती भी खींच ले| वहीं दूसरी ओर टीम अन्ना इतने लोगों का समर्थन देखकर फूली नहीं समा पा रही है| ये तथाकथित शांतिपूर्ण आंदोलन कब टीम अन्ना की हद से बाहर जाकर कब उग्र रूप ले लेगा, पता भी नहीं चलेगा, बस भीड़ से एक पत्थर चलने की देर है| शुरुआत कल हो चुकी है जब कुछ लोगों ने रामलीला मैदान के बाहर शराब पीकर पुलिस पर आक्रमण किया| एक व्यक्ति आज सुबह संसद परिसर तक में घुस गया और काफी देर तक हंगामा काटा | मीडिया भी ऐसे-ऐसे कवरेज कर इस तरह की हरकतों के लिए प्रेरणा साबित हो रहा है| राजधानी की सड़कों पर अन्ना के समर्थक बनकर लोगों ने कारों और बाइकों पर सवार होकर उत्पात मचाना शुरू कर दिया है| समय रहते सरकार और टीम अन्ना न चेते और जल्द से जल्द इस पर कोई ठोस कदम न उठाया गया और या भगवान न करे कि कहीं अन्ना हजारे को कुछ हो गया तो तो आने वाला समय कहीं इनके माथे पर कलंक न लगा दे| कहीं गांधी बनते-बनते अन्ना हजारे अपने जीवन भर की उपलब्धियां एक क्षण में न गँवा दें| कहीं ऐसा न हो कि लम्हों की खता सदियों को झेलनी पड़े|

 

जय हिंद|

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to आर.एन. शाहीCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh