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सोशियल नेट्वर्किंग पर सेंसर क्यों?

अंगार
अंगार
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अब कपिल सिब्बल जी को फेसबुक, गूगल, ट्विटर जैसी सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स से परेशानी महसूस होने लगी है| कहने को बहाना ये है कि लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाई जा रही है और नग्नता परोसी जा रही है, पर असली कारण कुछ और ही है| इस समय इन सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर सबसे ज्यादा आलोचना सरकार और कांग्रेसी नेताओं की हो रही है| बहुत से नेताओं की वो पृष्ठभूमि सार्वजनिक होने लगी है जिससे कि आम जनता सालों तक अनभिज्ञ थी| पहले सिर्फ सरकार होती थी और विपक्ष होता था पर मेन फैक्टर यानी कि जनता गायब होती थी, पर अब इन सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स के माध्यम से जनता को स्वर मिला है और जनता इस सरकार और विपक्ष दोनों की कलई खोल रही है तो इन लोगों को परेशानी होने लगी है|

 

कोई ये बताए कि ये महाशय कपिल सिब्बल जी कौन हैं? क्या ये या ये सरकार इस देश के मालिक हैं? देश किसका होता है, सरकार का या जनता का? इनकी पहचान क्या है, यही ना कि ये इस देश की जनता द्वारा चुने गए एक प्रतिनिधि मात्र हैं| अब जनता की आवाज से ही इनको परेशानी होने लगी है| इन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि इनकी अवधि सिर्फ पांच साल की है और वो भी तब जब कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पाए तो| लेकिन अगर आप इनके तेवर देखें तो साफ़ दिखता है कि ये जनता के प्रतिनिधि कम बल्कि डिक्टेटर ज्यादा नजर आते हैं| यही हाल शरद पवार, चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी जैसे नेताओं का भी है जिनका अहम सार्वजनिक तौर पर साफ़ नजर आता है| लेकिन ये लोग अगर अपने राजनैतिक भविष्य के प्रति इतने आत्मविश्वास से भरपूर और आश्वश्त हैं कि जनता की प्रतिक्रया इनके लिए कोई मायने नहीं रखती तो इसका भी कारण है| आज के राजनैतिक परिदृश्य में जनता के वोट बहुत ज्यादा मायने नहीं रखते| अब सरकारें आम जनता के वोट से कम बल्कि पार्टी वोट और जोड़-तोड़ की राजनीति से ज्यादा बनती हैं| आम आदमी तो इस घटिया राजनीति से इतना ऊब चुका है कि उसमें वोट देने के प्रति कोई उत्साह तक नजर नहीं आता| कांग्रेस जानती है कि इतना बड़ा उलटफेर तो होने से रहा कि भाजपा अकेले अपने दम पर सरकार बना ले| अपने दम पर सरकार बनाना तो कांग्रेस के बस की भी बात नहीं है पर फिर वही साम्प्रदायिक-गैर साम्प्रदायिक के नाम पर कुछ बेपेंदे के लोटे जैसी कुछ पार्टियां कांग्रेस के साथ जुडकर सरकार बनाने में मदद करेंगी| रूस से बंगाल के रास्ते भारत में घुसा कम्युनिज्म आज न तो रूस में ही बचा है और न ही बंगाल में पर आश्चर्यजनक है कि फिर भी भारतीय राजनीति में फुल उंगली किये रहता है| इससे भी जोरदार बात ये है कि उत्तर प्रदेश के एक किसान नेता गाहे-बगाहे तीन आदमी लेकर भी सरकार को हिलाते रहते हैं|

 

कहा जा रहा है कि सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं पर चोट की जा रही है तो मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं भी इस प्रकार की सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स से जुडा हुआ हूँ पर मुझे तो ऐसी कोई बात नजर नहीं आई बल्कि इनके मध्याम से लोगों में धार्मिक सद्भावना को बढ़ता हुआ ही पाया है| इसका साक्षात उदाहरण किसी भी धर्म से जुड़े हुए त्यौहार या पर्व के अवसर पर इन सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर पोस्ट होने वाले एक-दूसरे को बधाई देते हजारों-लाखों संदेशों से देखा जा सकता है जों कि पहले नहीं देखा जाता था| हाँ ये सच है कि कुछ असामाजिक तत्व इस सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने की कोशिश करते हैं पर वे नगण्य हैं| बल्कि इस सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ने की कोशिश अगर कोई सबसे ज्यादा करता है तो वो हैं इस देश की राजनैतिक पार्टियां और नेता, भले वो कांग्रेस हो या भाजपा| क्यों हमेशा सभी पार्टियां और उनके नेता स्वयं को मुस्लिम समुदाय के सबसे बड़े हितैषी साबित करना चाहते हैं? क्यों वे हिंदुओं के बारे में बात करने में कतराते हैं? जहां एक ओर मुस्लिम समुदाय की हितैषी बनकर पार्टियां और उनके नेता अपने को गैर साम्प्रदायिक साबित करने की कोशिश करते हैं, वहीं दूसरी ओर हिंदुओं के हित की बात करने पर उन्हें साम्प्रदायिक कहलाने का भय रहता है, क्यों भला?

 

सच्चाई तो ये है कि इस समय इन सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर अगर कोई सबसे ज्यादा निशाने पर कोई हैं तो वो है कांग्रेस सरकार, सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, शरद पवार, चिदंबरम, प्रणव मुखर्जी, राहुल गांधी, कपिल सिब्बल जैसे कांग्रेसी नेता| अब वो ज़माना नहीं रहा कि जिस प्रकार इंदिरा गांधी के निधन पर कांग्रेसियों ने राजीव गांधी को बिना किसी राजनैतिक अनुभव और योग्यता के पकड़कर मात्र इसलिए प्रधानमंत्री बनवा दिया था कि वो इंदिरा गांधी के पुत्र थे, वैसे ही राहुल गांधी भी धुप्पल में थोप दिए जायेंगे| अब राहुल को अगर जनता का नेता बनना है तो उन्हें अपनी योग्यता साबित  करनी पड़ेगी, जों कि वे नहीं कर पा रहे हैं| अगर जनता मनमोहन सिंह को निष्क्रिय और कठपुतली प्रधानमंत्री बता रही है तो ये किसी ने जनता को सिखाया नहीं है बल्कि ये ये एक वैचारिक संकेंद्रीकरण है जों कि इन सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स के माध्यम से ही अस्तित्व में आया है|

 

एक पुरानी कहावत हैं कि सावन के अंधे को हमेशा हरा-हरा ही नजर आता है| ऐसा ही हाल कई ऐसे नेताओं का भी है जों कि कई पीढ़ियों से बिना पर्याप्त योग्यता के सत्ता सुख सिर्फ इसलिए भोग रहे हैं कि वे किसी खास परिवार से जुड़े हुए हैं| पर अब वो दौर समाप्त होने की राह पर है| कपिल सिब्बल को मौका मिला कि वे अच्छी शिक्षा ग्रहण कर पाए और उनके समर्थ होने का ही प्रभाव था कि उनके बच्चे विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाए| पर क्या इससे उन गरीब और असमर्थ परिवारों के बच्चों की शिक्षा निम्न स्तर की हो जाती है जों कि सुविधाओं और मौकों के अभाव के बावजूद पढ़-लिख गए? मेरी नजर में तो इन सामान्य लोगों की शिक्षा की ग्रेविटी कहीं ज्यादा है जों कि अपनी मेहनत और योग्यता से अभावों के बावजूद पढ़ पाए न कि उनकी जिनको कि पारिवारिक समृद्धि के कारण योग्यता न होने के बावजूद अच्छे शिक्षा संस्थानों में पढ़ने का मौका मिला| इस प्रकार शिक्षा पाए लोग मेरी नजर में निश्चित ही उन लोगों से कहीं बेहतर हैं जों कि अपने पैसे और प्रभाव की मदद से शिक्षा और नौकरी पाते हैं| कपिल सिब्बल को ये मालूम् नहीं है कि इस देश के गाँवों में बच्चे किस प्रकार बिना बिजली के, बिना पर्याप्त स्कूली सुविधाओं के, बिना अध्यापकों के, मीलों मील पैदल चलकर, अपने जानवरों को चुगाते-२ भी किताबें पढते हुए किन विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त करते हैं और तमाम बाधाओं के बावजूद भी आगे बढते हैं| कपिल सिब्बल कभी पहाड़ की तरफ आयें तो उन्हें सड़कों और पहाडी पगडंडियों पर स्कूली बच्चे पैदल चढ़ते-उतरते दिख जायेंगे क्योंकि स्कूल घर से बहुत दूर हैं|

 

पुराने समय में लोग अपनी-२ हैसियत के अनुसार गली-मोहल्ले के टाट-पट्टी छाप प्राइमरी स्कूलों में अपने बच्चों को भर्ती करवा दिया करते थे| ऐसे ही टाट-पट्टी छाप प्राइमरी स्कूलों से पढकर न जाने कितने ही आई.ए.एस., पी.सी.एस., डाक्टर, इंजीनियर बने, यहाँ तक कि इस देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बने| तब कोई इन गली छाप प्राइमरी स्कूलों मान्यता की बात नहीं करता था बल्कि छात्रों की योग्यता की बात होती थी| अब स्कूलों की मान्यता और औकात देखी जाती है, छात्रों की योग्यता नही|

 

डीम्ड विश्वविद्यालयों का इतिहास क्या है, ये किसी को बताने की जरूरत नहीं है| जिन डीम्ड विश्वविद्यालयों को इन्हीं नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए खुद बनवाया था और इनको मान्यता दिलवाई थी, वही अब इनके लिए फर्जी शिक्षा के संस्थान हो गए हैं क्योंकि वहाँ से वो टाट-पट्टी छाप स्कूलों के छात्र शिक्षा प्राप्त करने लायक हो गए हैं जिन्हें कि ये उच्च शिक्षा पाने के लायक नहीं समझते| अगर ये डीम्ड विश्विद्यालय वैध नहीं हैं तो क्यों अभी भी चल रहे हैं? जिन छात्रों की हैसियत बड़े इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों में पढ़ने की नहीं है या वे किन्ही कारणों से इनमें प्रवेश नहीं पा सकते, उन्हें अगर इन डीम्ड विश्विद्यालयों के माध्यम से पढ़ने का और आगे बढ़ने का अवसर मिलता है तो इसमें बुरा क्या है? लेकिन कपिल सिब्बल साहब ने क्या किया? इन डीम्ड विश्विद्यालयों से शिक्षा पाए हजारों-लाखों छात्रों का भविष्य अनिश्चितकाल के लिए लटका दिया| यहाँ तक कि पिछले कई वर्षों से ख्याति प्राप्त हरिद्वार की गुरुकुल कांगडी जैसी जानी-मानी यूनिवर्सिटी को भी अमान्य करार दे दिया| क्या कपिल सिब्बल बता सकते हैं कि इन डीम्ड विश्विद्यालयों को खोलने की अनुमति किसने दी है और अगर ये वैध नहीं हैं तो क्यों अभी भी चल रहे हैं? क्या ये बता सकते हैं कि इसमें छात्रों की क्या गलती है? कोई इनकी या इनके बच्चों की शिक्षा पर उंगली उठाये तो इन्हें कैसा लगेगा? इस सम्बन्ध में कुछ महीने पहले जब कपिल सिब्बल जी को मेल भेजकर अधर में लटके ऐसे छात्रों के भविष्य के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया|

 

भाजपा हालांकि इस समय प्रमुख विपक्षी पार्टी है लेकिन सभी राजनैतिक पार्टियां और नेता एक ही थैली के चट्टे-बट्टे यूं ही नहीं कहे जाते हैं| बस अंतर इतना ही होता है कि पक्ष में कौन है और विपक्ष में कौन| स्थिति पलटते ही इनके रोल आपस में बदल जाते हैं| इस विषय पर विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज जी को भी मेल भेजा गया था किन्तु उन्होंने भी इस सम्बन्ध में कोई जवाब नहीं दिया| इससे स्पष्ट है कि ये नेता जनता के प्रति कितने संवेदनशील होते हैं और इन नेताओं के प्रोफाइल पर दिए गए ई-मेल एड्रेस महज औपचारिकता मात्र होते हैं|

 

अब रही नग्नता की बात तो यही कहना चाहूंगा कि जब तक कपडे धीरे-२ उतरते रहे तो देखते रहे और मजा लेते रहे, पर जब पूरा शरीर ही नग्न हो गया तब आपको नग्नता नजर आई? शीला-मुन्नियों की जवानी बदनाम होते देखते रहे, कामेडी सीरियलों में माँ-बहन की एक करवाते रहे, सन्नी लियोन के आने पर भी नग्नता नहीं दिखाई दी? बत्तीस साल की उम्र में जवान हो रही विद्या-बालान की डर्टी-पिक्चर जैसी फूहड़ फ़िल्में देख-२ कर मरी हुई सिल्क स्मिता को बदनाम होते देख कर मजा ले रहे हो तब नग्नता नहीं दिखाई दे रही| तमाम इन्टरनेट पर नग्नता भरी हुई नहीं दिखाई दे रही| नग्नता दिख रही है तो सिर्फ सोशियल नेट्वर्किंग साइट्स पर क्योंकि वहाँ पर अब जनता कपडे उतार रही है नेताओं के, जनप्रतिनिधियों के, भ्रष्टाचारियों के|

 

माफ कीजिये हुजूर, अब जनता इतनी बेवकूफ नहीं रही| इस वैचारिक क्रान्ति की हवा और रौशनी को रोक पाना अब आपके लिए संभव नही है|

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