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क्या इस देश का वोटर गधा है?

अंगार
अंगार
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अंगारचंद को खुद पर बड़ा अफ़सोस रहता है कि जिंदगी यूं ही बीत गई पर वो आज तक कुछ बन नहीं पाया| लेकिन अगर अंगारचंद अपने जीवन में आज तक बड़ा आदमी नहीं बन पाया तो इसके कुछ खास कारण हैं| एक तो अंगारचंद खुद को जरूरत से ज्यादा होशियार समझता है, दूसरे हर बात का नेगेटिव एनालाइसिस करता है, तीसरे वो खुद को बहुत ज्यादा आत्मसम्मानी समझता है| जबकि बड़ा आदमी बनने के लिए इन अवगुणों का न होना बहुत जरूरी होता है| यानी कि कोई भी काम करते समय अपना दिमाग हमेशा किनारे रखो, हर बात में हाँ में हाँ मिलाओ, और तुम्हारी कितनी भी उतारी जाय उफ़ न करो, बस चुप रहो| अगर अंगारचंद ने खुद में ऐसे गुणों का समावेश कर लिया होता तो निश्चित ही वो आज कुछ और नहीं तो कम से कम इस देश का प्रधानमंत्री तो बन ही गया होता| या अगर अंगारचंद भी बिना दिमाग लगाए सिर्फ छब्बीस या बत्तीस रुपये में आम आदमी को पौष्टिक भोजन खिलाने की कैलकुलेशन कर सकता तो वो अंगारचंद अहलूवालिया भी बन सकता था| या अंगारचंद तलवे चाटने के योग्यता रखता तो कोई छोटा-मोटा मंत्री भी बन सकता था|

 

अब देखिये कि चुनाव आयोग में भी तो बड़े-२ काबिल अधिकारी हैं, पर अपना अंगारचंद है कि इनके निर्णयों से सहमत ही नहीं होता, नेगेटिव थिंकिंग जो ठहरी| चुनाव आयोग का मानना है कि हाथी पर कपडा डाल दो तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि कपडे के नीचे क्या है क्यों कि इस देश का वोटर तो गधा है, उसे हाथी की क्या पहचान| लेकिन अपना अंगारचंद इससे सहमत नहीं है| अंगारचंद का मानना है कि इस देश का वोटर गधा नहीं है जिसे कि आप ‘चोली के पीछे क्या है, चोली में दिल है मेरा’ कहकर बेवकूफ बना सको| अट्ठारह साल के ऊपर का जो आदमी यह नहीं जानता कि चोली के पीछे क्या है, वही निश्चित रूप से गधा है| बल्कि अब तो अट्ठारह साल से नीचे के स्कूली लड़के भी इतना ज्ञान रखने लगे हैं कि चोली के पीछे क्या है| अंगारचंद का दिमाग तो कहता है कि कपडा डालना है तो किसी छोटे-मोटे जानवर के ऊपर डालो, जिससे कि वाकई में जनता को बेवकूफ बनाया जा सके और वो समझ न सके कि कपडे के पीछे कुत्ता है या बिल्ली, घोडा है या गधा| हाथी जैसे जानवर पर कपडा डाल के छुपाने की कोशिश करना ऐसा ही है जैसे सन्नी लियोन का जिस्म कपडे से ढंकने की कोशिश करना|

 

चुनाव आयोग के दानिशमंद लोगों ने आचार संहिता बनाई है कि चुनाव के दौरान कोई भी प्रत्याशी जनता मे कोई उपहार जैसे कम्बल, साड़ी/धोती, सिलाई मशीन, धन या शराब आदि बांटकर वोट खरीदने की कोशिश नहीं कर सकता| यहाँ भी चुनाव आयोग से अंगारचंद सहमत नहीं है| भाई अगर गरीबों को इस चुनाव के बहाने ही सही, कुछ मिल रहा है तो चुनाव आयोग के पेट में दर्द क्यों हो रहा है| क्या चुनाव आयोग खुद गरीबों के लिए कुछ करता है क्या? जब चुनाव आयोग गरीबों को कुछ दे नहीं सकता तो जो उन्हें मिल रहा है उसे छीन क्यों रहा है?

 

और शराब तो गरीबों की संजीवनी है| शराब सिर्फ उनके लिए अच्छी या बुरी है जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं| पैसे वालों के पास ही ये ऑप्शन होता है कि आज भूख है या नहीं, आज चिकन टिक्का खाना है या पनीर टिक्का, आज कौन सी पीनी है या मूड नहीं है, या पीते ही नहीं हैं| गरीबों के पास तो भूख हमेशा होती ही होती है और खाने या पीने में ऑप्शन नहीं होते| गरीबों के पास खाने का हमेशा अभाव होता है और उस अभाव को भूलने में मदद करती है शराब| दिन भर भूखे पेट रहकर हाड-तोड़ मेहनत के बाद कोई गरीब अपने दुखते जिस्म की किसी मसाज सेंटर में मालिश करवाने की औकात नहीं रखता और न ही उसे कोई पौष्टिक भोजन नसीब होता है| इसलिए गरीब नशे के पीछे अपने कष्टों को भुलाने की कोशिश करता है| मुंशी प्रेमचंद के पात्रों को ही उठा लीजिए| हलकू हो या होरी, पूस की सर्दी में ठण्ड से बचने के लिए कम्बल या रजाई के अभाव में तम्बाकू ही उनका सहारा होता है| इस कडाके की सर्दी में गरीबों को थ्री एक्स रम फ्री में मिल जाती तो उन की सर्दी मजे से कट जाती| सरकार यूं ही फौजियों को सस्ते दामों पर दारू की सुविधा नहीं देती, इसी के सहारे ही फ़ौजी बर्फीले इलाकों में ड्यूटी कर पाते हैं|

 

अब जो गरीब मजदूर अपनी औकात के हिसाब से घटिया, कच्ची-पक्की दारू पीता है, उसे चुनाव के दिनों में अगर उसकी औकात से ऊपर के ब्रांड फ्री में मिल रहे हैं तो किसी को क्या आपत्ति है| और अगर किसी को इस बात से परेशानी है तो वो आगे आकर उनके रोटी-कपडे की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेता| ये तो वही बात हुई कि न तो खुद कुछ देंगे और न किसी को देने देंगे| और चुनाव आयोग को ऐसा क्यों लगता है कि इन चीजों से वोटर बहकाए जा सकते हैं| अगर चुनाव आयोग एक वोटर को इतना बेवकूफ समझता है तो उसे वोटर से वोट देने का अधिकार भी छीन लेना चाहिए|

 

पंजाब में चुनाव आयोग ने प्रकाश सिंह बादल के गाँव बादल में चल रहे सीवर, सड़क-नालियों के निर्माण कार्य पर यह कहकर रोक लगा दी कि बादल चुनाव की घोषणा/आचार-संहिता लागू होने के बाद भी काम करवा रहे हैं| भाई ये क्या बात हुई? इन कामों के रुकने से न तो चुनाव आयोग को कोई परेशानी होगी और न ही बादल को, परेशानी होगी तो सिर्फ जनता को| क्या इसकी जिम्मेदार जनता है?

 

चुनावों के दौरान सबसे ज्यादा खौफजदा रहते हैं सरकारी कर्मचारी और उनमें से भी खासतौर पर स्कूलों के मास्टर जिनकी इन चुनावों में ड्यूटी लगती है| अंगारचंद का अनुभव है एक भी शख्स इस ड्यूटी से खुश नहीं होता बल्कि खीजता ही है| कभी चुनाव आयोग ने इस पहलू पर भी ध्यान दिया कि ऐसा क्यों है| क्यों सरकारी कर्मचारी इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आयोजन के अवसर पर अपना योगदान देने में खुशी से आगे नहीं आते| क्यों हर कोई कोशिश करता है कि किसी तरीके से इस ड्यूटी से छुटकारा मिल जाय| इसका कारण है कि एक सरकारी कर्मचारी के पूरे सेवाकाल में यही एक ऐसी ड्यूटी होती है जिसे कि उसे अपनी जेब से खर्चा करके करना पड़ता है| चुनाव ड्यूटी में लगे कर्मचारियों को मिलने वाला यात्रा और दैनिक भत्ता न सिर्फ काफी कम होता है बल्कि कई बार तो यह मिलता ही नहीं है| क्या चुनाव आयोग ने कभी इस तथ्य की और ध्यान दिया और यह सुनिश्चित करने की कोशिश की कि चुनाव कर्मियों को पर्याप्त भत्ता मिलता भी है या नहीं| इसके अतिरिक्त दुर्गम स्थानों पर ड्यूटी लगने की स्थिति में चुनाव कर्मियों को होने वाली परेशानियों पर भी किसी का ध्यान नहीं जाता| एक बार अंगारचंद की भी चुनाव में पहाड़ में ऐसी जगह ड्यूटी लग गई जहां कि एक दो कमरे का प्राइमरी स्कूल बिलकुल सुनसान में था| उस स्कूल में न तो कोई टॉयलेट-बाथरूम था, न पानी की कोई व्यवस्था, न खाने और सोने की कोई व्यवस्था, न बिजली, न कोई फर्नीचर| मुख्य सड़क से पांच किमी० की पैदल खडी चढाई और सुरक्षा के नाम पर सिर्फ दो नए-नवेले ठु….मतलब पुलिस वाले जिनके पास डंडा तक नहीं था| एक टूटी-फूटी कुर्सी को उधार की चद्दर से घेर कर जैसे-तैसे पोलिंग बूथ बनाया गया और मतदान कराया गया| विश्वास नहीं होता कि इस तरह की फटीचर व्यवस्था से राजा और कलमाडी जैसे चुने जाते हैं जो करोड़ों-अरबों का घोटाला करते हैं| इस भिखारी व्यवस्था से तो बेहतर है कि किसी प्रत्याशी को यह व्यवस्था सौंप दी जाय तो वह चुनाव कर्मियों को चुनाव आयोग से कहीं बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करवा देगा|

 

इस समय समूचे उत्तराखंड में कडाके की सर्दी पड रही है और कई स्थानों पर भारी हिमपात हुआ है| चुनाव आयोग किसी भी कीमत पर इन विषम परिस्थितियों में भी मतदान कराने पर अडा हुआ है लेकिन उसका ध्यान इस और बिलकुल भी नहीं है कि चुनाव कर्मियों खास-तौर पर उम्रदराज लोगों को कितनी परेशानी उठानी पड़ेगी| किस बंदे को क्या तकलीफ है, क्या बीमारी है, क्या मजबूरी है, इससे चुनाव आयोग को कोई मतलब नहीं है, बस जोत दो बूढ़े बैलों को भी भ्रष्टाचारी नेताओं की उत्पादन प्रक्रिया में|

 

अंगारचंद चुनाव के दौरान प्रत्याशियों द्वारा संपत्ति की घोषणा के ड्रामे से भी असंतुष्ट है| यह सारा ड्रामा इस देश की जनता का मजाक सा उड़ाता हुआ प्रतीत होता है| आज के दौर में मजदूर-मिस्त्री, धोबी-मोची, सब्जी बेचने वाले तक मोटर साइकिल, मोटरकार, कम्प्यूटर-लैपटॉप, मोबाइल जैसी चीजें मेंटेन कर रहे हैं| ऐसे में क्या ये बात हजम होने वाली है कि इसी देश में उन सोनिया-राहुल के पास अपनी साइकिल तक न हो, अपना घर न हो जिनके खानदान ने आजादी मिलने के बाद से ही लगातार इस देश पर राज किया है| अगर इमानदारी से ऐसा है तो धिक्कार है हमें कि जिस परिवार ने इस देश के लिए इतनी कुर्बानियां दी, इतनी सेवा की कि खुद के लिए कुछ नहीं कर सके, हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर सके| आज भी राहुल दलितों के घर पर रूखी-सूखी खाकर जमीन पर सो जाते हैं तो ये उनका दिखावा नहीं बल्कि आर्थिक अभाव है| एक बार तो उन्होंने तसला उठाकर मजदूरी तक की| इसके लिए उन्हें मनरेगा के तहत कुछ तो मिलना ही चाहिए ही था| हमारे देश का प्रधानमंत्री भी देखिये कितना ईमानदार है कि आज तक एक खटारा मारुती-800 से ऊपर अपना स्तर नहीं उठा पाया| इस नजरिये से देखें तो आज की तारीख में तो एक फोर्थ क्लास कर्मचारी भी इनसे कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है| पर जिन्हें इस देश की सर्वश्रेष्ठ सुविधाएं उपलब्ध हों तो वो अपनी क्यों ले, जनता के पैसों की मौज क्यों न ले|

 

राहुल ने कहा कि उमा भारती उत्तर प्रदेश के बाहर से आकर चुनाव लड़ रही हैं| अंगारचंद का कहना है कि जब बाहर का क्रॉस ब्रीड कीनू नागपुर के संतरों को बर्बाद कर सकता है तब उमा भारती तो फिर भी भारत की ही हैं|

 

इस देश में कुछ तथाकथित लोग जनता के स्वयम्भू हितैषी बनकर विदेशों में काले धन का राग अलापे हुए हैं| जनता का भावनात्मक शोषण कर खुद काले धन के ढेर पर बैठकर वो जिस हाथ से दूसरों के काले धन की ओर एक उंगली दिखा रहे हैं, उसी हाथ की तीन उंगलियां उनकी खुद की ओर हैं पर उनकी समझ में ये बात नहीं आ रही है| एक चोर की ये प्रकृति होती है कि वो कभी अपने तकिये के नीचे छुपे धन को नहीं देख पाता और उसे दूसरों के तकिये के नीचे खोजता रहता है| अंगारचंद का दावा है कि इस देश के भीतर इतना काला धन है कि देश के बाहर का काला धन इसके सामने ऊँट के मुंह में जीरा है|

 

जॉर्ज बुश के ऊपर जूता फेंके जाने की घटना ने इस देश के उत्साही लोगों को एक नई ही दिशा प्रदान की है| यह एडवेंचरस खेल बड़ी तेजी से फैशन का रूप ले चुका है और पहचान पाने का शॉर्ट कट बन चुका है| जितना बड़ा निशाना, उतनी प्रसिद्धि| और तो और जूता फेंकने वाले को माफ करना भी बड़े लोगों का फैशन बन चुका है| देहरादून में टीम अन्ना के बाद आज राहुल की सभा में भी जूते का जलवा चर्चा में रहा| जूता फेंकने की कोशिश करने वाले को एक और जूता फेंकने का निमंत्रण देकर राहुल भी चर्चा में आ गए|

 

बड़ा आदमी न बन पाने के इन्फीरियरटी कॉम्प्लेक्स के चलते हताशा में कभी-कभी तो अंगारचंद का मन भी करता है कि काश कोई उस पर भी जूते फेंके जिससे कि वह भी अपनी पहचान बना सके, सेलेब्रिटी बन सके| लेकिन अंगारचंद ये नहीं जानता कि बड़े लोगों पर जूते चलें तो उनका नाम होता है और आम आदमी पर चलें तो उसकी बेइज्जती होती है और अंगारचंद एक आम आदमी से ज्यादा कुछ नहीं है|

 

इस लिए प्यारे अंगारचंद आम आदमी ही बन के रहो और अपनी इज्जत बचाए रहो| इज्जत कमाने में जिंदगी बीत जाती है और गंवाने में एक पल भी नहीं लगता|

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