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“दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी“
शहीदे आजम भगत सिंह का जन्म २८ सितंबर, १९०७ में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में १३ अप्रैल, १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे| लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि पण्डित चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड गये और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन । इस संगठन का उद्देश्य सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने अलीपुर रोड दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं.
भगत सिंह मूलतःमार्क्सवसमाजवादके सिद्धांतो से प्रभावित थे.इस कारण से उन्हें अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी. ऐसी नीतियों के पारित होने के खिलाफ़ विरोध प्रकट करने लिए क्रांतिकारियों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची.
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी‘आवाज़‘पहुंचे.निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल,१९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंक दिया.वे चाहते तो भाग सकते थे पर भगत सिंह की सोच थी की गिरफ्तार होकर वे अपना सन्देश बेहतर ढंग से दुनिया के सामने रख पाएंगे.
करीब २ साल जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा. इसी दौरान उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’| फांसी पर जाने से पहले तक भी वेलेनिनकी जीवनी पढ़ रहे थे. जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हडताल की.
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई. फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे –
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी.
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में भगत सिह ने लिखा था –
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही,आओ मुक़ाबला करें.
इससे उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है.शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए. चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबती की लौ पर हाथ रखकर उन्होने कसम खाई कि उनका जीवन वतन पर ही कुर्बान होगा, और उन्होंने ऐसा किया भी|
भगतसिंहनेकहाथाकिमैंअगरफाँसीचढ़ातोआनेवालीनस्लोंमेंमातायेंदुआकियाकरेंगीकिउनकीकोखसेभगतसिंहजैसाबेटापैदाहों| लेकिन अफ़सोस कि ऐसा हुआ नहीं| बरसोंपुरानीशहादतअबकहावतबनकररहगईहै, हरआदमीचाहताहैकिभगतसिंहपैदाहोंपरअपनेघरनहीं, पडोसीकेयहां|
भगत मैं तुम्हें सिर्फ नमन ही कर सकता हूँ|
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