Menu
blogid : 3502 postid : 1176

पुरुषवादी सोच बनाम स्त्रीवादी सोच

अंगार
अंगार
  • 84 Posts
  • 1564 Comments

आज सुबह ही दिल्ली गैंग रेप पीडिता की मृत्यु का समाचार सुना, उस मासूम को श्रद्धांजलि| हालांकि श्रद्धांजलि तब ही मायने रखती है जब कि आप कोई बड़े आदमी या सेलेब्रिटी हों, मुझ जैसे सामान्य नागरिक के मुंह से श्रद्धांजलि शब्द आकर्षक नहीं लगता|


सुबह से ही पूरा देश उस बालिका को श्रद्धांजलि दे रहा है पर वीआईपी लोगों की श्रद्धांजलि काबिले तारीफ़ है| कई लोग उस निरीह बालिका को बहुत बहादुर बता रहे हैं जो बेचारी वहशियों के जुल्म का शिकार हुई| कुछ टीवी चैनलों ने तो उपाधियाँ देने का ठेका ही उठा रखा है जो किसी को कोई भी उपाधि दे देते हैं| ये लोग एक मैच में अच्छे प्रदर्शन पर खिलाड़ी को भगवान् बना देते हैं और दुसरे ही मैच में ख़राब प्रदर्शन पर जुतियाने का राष्ट्रीय ठेका भी ले लेते हैं| संवेदनाये और भावनाएं अपनी जगह हैं और सत्य अपनी जगह है| जो लोग उस निरीह बालिका को बहादुर बता कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना चाह रहे हैं वे लोग दरअसल इस आड़ में अपनी कायरता और नाकामी को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं|


यह बिलकुल ऐसे ही है जैसे कि बॉर्डर पर तैनात सिपाही को पता भी न चले कि गोली किधर से आई और उसका भेजा उड़ जाय, पर कहा यही जायगा कि उसने अत्यंत बहादुरी से दुश्मन का सामना करते हुए वीरगति पाई| आजादी के आन्दोलन के समय के बचे सभी लोग आजादी के बाद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बन गए और उनकी बहादुरी के किस्से बन गए भले ही उनमें से बहुतों ने कभी मेंढकी भी न मारी होगी| ऐसा ही कुछ उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान भी हुआ| जिन बेचारों ने इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और पुलिस के डंडे खाए, वे बाद में गुमनाम ही रह गए और मलाई लूट ले गए कोई और ही लोग|


दिल्ली के सामूहिक बलात्कार काण्ड के बाद इंडिया गेट पर जनता के प्रदर्शन के दौरान एक पुलिस वाले की संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत्यु हो गई| हालांकि कुछ चश्मदीद इसे स्वाभाविक मृत्यु बता रहे हैं पर दिल्ली पुलिस इसमें आन्दोलनकारियों का हाथ साबित करने पर तुली है| अब इस पुलिसवाले की मृत्यु हो चुकी है तो हर कोई इन्हें बहादुर, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार आदि-२ उपाधियाँ देने पर तुला है, जबकि जीवित पुलिसवालों को भ्रष्ट, बेईमान, बर्बर, दमनकारी, ड्यूटी के प्रति लापरवाह जैसी उपाधियाँ ही मिलती हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि जीवित रहने तक आपका कोई नाम नहीं होता लेकिन मौत के बाद आपको वह तारीफ़ भीं मिलती है जिसके बारे में आप खुद भी सपने में नहीं सोच सकते| शायद यही इस देश के लोगों की सच्ची भावनाएं और संवेदनाएं हैं|


इस दौरान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के सांसद बेटे अभिजीत ने स्त्रियों के बारे में विवादास्पद बयान क्या दिया कि कुछ टीवी चैनलों ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाकर उन्हें राष्ट्रीय खलनायक बना दिया और अंततः बेचारे अभिजीत को अपना बयान वापस लेकर माफी भी मांगनी पडी| लेकिन क्योंकि मैं राष्ट्रपति का बेटा या सांसद या कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ, इस लिए मेरे बयान पर कोई हल्ला नहीं मच सकता| ज्यादा से ज्यादा कुछ लोग कमेन्ट ही कर सकते हैं| कुछ हद तक अभिजीत मुखर्जी की बात सही भी थी| हालांकि मैं इस आन्दोलन की बात नहीं कर रहा पर वाकई आन्दोलन आज फैशन बन गए हैं| क्योंकि इस बहाने नेताओं को अपनी नेतागिरी चमकाने, छात्रों को स्कूल बंद करवाने, कर्मचारियों को अपने संस्थान बंद करवाने और अराजक तत्वों को तोड़-फोड़ और लूटपाट करने का स्वर्णिम अवसर मिलता है| आम जनता को तो हमेशा ही इन आन्दोलनों से परेशानी ही होती है| एक आन्दोलनकारी को यह परेशानी तब ही समझ में आ सकती है जबकि उसका कोई अपना मर रहा हो और उसे अस्पताल जाने का साधन किसी आन्दोलन की वजह से न मिले| हालांकि यह आन्दोलन नेत्रित्वविहीन आम जनता ने शुरू किया था लेकिन बाद में कुछ राजनीतिक दलों ने इसे हथियाने की पूरी कोशिश भी की| और जब से कुकुरमुत्ते की भाँती टीवी न्यूज चैनल उग आये हैं तब से भीड़ का हर आदमी अपनी मुंडी इनके माईक में घुसाने को तत्पर दीखता है| ये टीवी चैनल वास्तव में किसी भी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को राष्ट्रीय नायक बना देते हैं और सचिन तेंदुलकर और धोनी जैसों को कभी राष्ट्रीय नायक तो कभी खलनायक भी बना देते हैं|


जहां तक डेंटेड-पेंटेड महिलाओं की बात है तो उसमें कुछ भी नया नहीं है| बनाव-श्रृंगार तो महिलाओं का नैसर्गिक अधिकार है और जब कैमरा और माइक पर आने की बात हो तो तब इसकी अहमियत और भी बढ़ जाती है| हमारे समय में तो डिग्री कॉलेज तक भी लडकियां बिना श्रृंगार किये ही आ जाती थीं| बल्कि वास्तव में लडकियां विवाह के बाद ही श्रृंगार करती थीं| लेकिन अब तो पांचवीं जमात की बच्ची भी लिपस्टिक लगाकर स्कूल जा रही है, ब्वायफ्रेंड भी बना रही है और…..|


इस आन्दोलन के दौरान टीवी चैनलों पर कुछ युवतियों के क्रांतिकारी बयान भी सुनने को मिले| आज के दौर की युवतियों का कहना है कि उन्हें भी पुरुष के समान अधिकार और स्वतंत्रता मिलनी चाहिए| वे चाहे स्कर्ट पहनें, मिडी पहने या मिनी पहने ये उनका अधिकार है| इन बालाओं के अनुसार यौन अपराधों का कारण स्त्रियों का पहनावा नहीं बल्कि पुरुषों की दूषित मानसिकता है| मेरे विचार में इन युवतियों को समानता और स्वतंत्रता के अधिकार के साथ-२ ह्यूमन साइकोलोजी और बायोलोजी की पढ़ाई भी आवश्यक रूप से करवाए जाने की आवश्यकता है| इन्हें स्त्री-पुरुषों की शारीरिक बनावट, हार्मोन्स और उनके शरीर, मन और मस्तिष्क पर प्रभाव का अध्ययन भी करवाना चाहिए जिससे कि इन्हें इस बारे में सही शिक्षा मिल सके| हैरत की बात है कि पुराने जमाने की स्त्रियाँ तब इन सब बातों को बेहतर समझतीं थी जब कि शिक्षा का प्रसार कम था और अब जब महिलाओं को बेहतर शिक्षा के अवसर हैं, आज की युवतियां इन व्यवहारिक बातों को नहीं समझ पा रहीं हैं| स्त्री-पुरुष की शारीरिक संरचना में प्राकृतिक रूप से अंतर हैं| पुरुष खुली छाती रख सकता है पर स्त्री नहीं| तो क्या इन युवतियों को कुछ भी पहनने या न पहनने की स्वतंत्रता का अधिकार उचित है? क्या स्त्रियों का अंग-प्रदर्शन या पहनावा पुरुषेन्द्रियों पर उत्प्रेरक का काम नहीं करता, या वास्तव में पुरुषों का दिमाग ही दूषित होता है? स्त्रियों को समानता का अधिकार और स्वतंत्रता मिलनी चाहिए शिक्षा और रोजगार में, उनकी सामाजिक हैसियत और सम्मान में, न कि नग्नता और व्यभिचार के प्रसार में|


इसी सन्दर्भ में एक चुटकुला याद आता है| एक मॉडल ने अपने फैशन डिजाइनर से कहा कि मैं रैम्प पर कुछ नया करना चाहती हूँ| फैशन डिजाइनर ने मॉडल से कहा कि तुम रैम्प पर चलते-२ अपना टॉप गिरा देना| इस पर मॉडल ने कहा कि यह आइडिया पुराना हो चुका है, कुछ नया बताओ| इस पर फैशन डिजाइनर ने मॉडल से कहा कि तुम रैम्प पर बिना कुछ पहने चले जाना, वहां पर टॉप पड़ा होगा, उसे उठाकर पहन लेना| तो क्या आज की पीढी वाकई में कुछ नया करना चाहती है? क्या इसी लिए पूनम पांडे और शर्लिन चोपड़ा जैसी युवतियां कुछ नया कर रही हैं|


आजकल जावेद अख्तर साहब बहुत बोल रहे हैं, शायद वे सांसद होने की अपनी जिम्मेदारी बेहतर समझने लगे हैं| उन्होंने भी इस बलात्कार पीडिता के प्रति अपनी संवेदनाएं और श्रद्धांजलि अर्पित की हैं| उनके अनुसार हम सभी इस सब के लिए जिम्मेदार हैं| मैं जावेद अख्तर से पूछना चाहता हूँ कि क्या वे युवा पीढी और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हैं? क्या उन्हें अपनी पत्नी शबाना आजमी को यह नहीं बताना चाहिए था कि इस बुढापे में उन्हें बोमन ईरानी के साथ किसिंग सीन नहीं करना चाहिए और इससे हमारे समाज में अच्छा सन्देश नहीं जाएगा|


मैं यह बात बार-२ अपने लेखों में लिखता आया हूँ कि हमारे फिल्मों और टीवी चैनलों में परोसी जा रही नग्नता और बेहूदगी यौन अपराधों के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी है| बहुत से बुद्धिजीवी इस पर पाश्चात्य सभ्यता और उनकी फिल्मों में ज्यादा नग्नता का उदाहरण देकर इसे नकारने की कोशिश करते हैं लेकिन उस सभ्यता में सैक्स की जरूरतों को पूरा करने के पर्याप्त और संवैधानिक माध्यम मौजूद हैं| वहां पर्याप्त वेश्याएं और सैक्स वर्कर कानूनी रूप से मान्य हैं| वहां उत्तेजना को रिलीज करने के मान्यता प्राप्त माध्यम हैं किन्तु हमारे देश में नहीं| यहाँ उत्तेजना प्राप्त करने के तो पर्याप्त माध्यम हैं पर उसे रिलीज करने के नहीं| यही कारण है कि जब युवा या समाज के निचले तबके के दर्शक पिक्चर हाल से कामुक और नग्न दृश्यों को देखकर घर लौटतें हैं तो उत्तेजना का इनपुट लेकर आते हैं जिसे रिलीज करने का उन्हें कोई उचित माध्यम नहीं मिलता और कई बार यह यौन अपराधों की परिणति के रूप में सामने आता है| इस लिए जरूरी है कि हम हालीवुड और बालीवुड में अंतर को समझें| अगर हमें सैक्स और नग्नता में पश्चिमी देशों की बराबरी करनी है तो पहले अपने देश में उतने ही वेश्याघर भी बना लेने चाहिए|


हालीवुड के एक निर्देशक ने एक बार कहा था – लोग कहते है कि पश्चिमी देशों की फिल्मों में सैक्स और नग्नता की अधिकता होती है लेकिन हम मैं कहता हूँ कि भारत की फिल्मों में सैक्स और नग्नता इस तरह आधे-अधूरे और खतरनाक रूप से परोसी जाती है जो यौन अपराधों को जन्म देती है|

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh