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शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने हँसते–हँसते भारत की आजादी के लिए 23 मार्च 1931 को 7:23 बजे सायंकाल फाँसी का फंदा चूमा था. इन शहीदों की पुण्यतिथि पर प्रतिवर्ष शहीद दिवस मनाया जाता है.
तो आइये इन शहीदों का स्मरण कर लें.
भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं.
भगत सिंह मूलतः मार्क्स व समाजवाद के सिद्धांतो से प्रभावित थे. इस कारण से उन्हें अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी. ऐसी नीतियों के पारित होने के खिलाफ़ विरोध प्रकट करने लिए क्रांतिकारियों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची.
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी ‘आवाज़‘ पहुंचे. निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंक दिया. वे चाहते तो भाग सकते थे पर भगत सिंह की सोच थी की गिरफ्तार होकर वे अपना सन्देश बेहतर ढंग से दुनिया के सामने रख पाएंगे.
करीब २ साल जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और लेखन व अध्ययन भी जारी रखा. इसी दौरान उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ. फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हडताल की.
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर भगत सिह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई. फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे –
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी.
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में भगत सिह ने लिखा था –
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें.
इससे उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है. शहीद भगत सिंह सदा ही शेर की तरह जिए. चन्द्रशेखर आजा़द से पहली मुलाकात के समय ही जलती मोमबती की लौ पर हाथ रखकर उन्होने कसम खाई कि उनका जीवन वतन पर ही कुर्बान होगा.
खैर, भगत सिंह के बारे में तो सभी जानते हैं पर भगत सिंह का नाम राजगुरु और सुखदेव के बिना अधूरा है. हालांकि राजगुरु और सुखदेव का नाम हमेशा भगत सिंह के बाद ही आया है पर आजादी के इन दीवानों का योगदान भगत सिंह से किसी भी मायने में कमतर नहीं था. तो आइये राजगुरु और सुखदेव के बारे में भी कुछ जान लें.
शहीद राजगुरु का पूरा नाम ‘शिवराम हरि राजगुरु‘ था. राजगुरु का जन्म 24 अगस्त,1908 को पुणे ज़िले के खेड़ा गाँव में हुआ था, जिसका नाम अब ‘राजगुरु नगर‘ हो गया है. उनके पिता का नाम ‘श्री हरि नारायण‘ और माता का नाम ‘पार्वती बाई‘ था. बहुत छोटी उम्र में ही ये वाराणसी आ गए थे. यहाँ वे संस्कृत सीखने आए थे. इन्होंने धर्मग्रंथों तथा वेदो का अध्ययन किया तथा सिद्धांत कौमुदी इन्हें कंठस्थ हो गई थी. इन्हें कसरत का शौक था और ये शिवाजी तथा उनकी छापामार शैली के प्रशंसक थे. वाराणसी में इनका सम्पर्क क्रंतिकारियों से हुआ. ये हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गए और पार्टी के अन्दर इन्हें ‘रघुनाथ‘ के छद्म नाम से जाना जाने लगा.चन्द्रशेखर आज़ाद,भगत सिंह और जतिन दास इनके मित्र थे. वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे.
राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत प्रभावित थे. 1919 में जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर के नेतृत्व में किये गये भीषण नरसंहार ने राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बाग़ी और निर्भीक बना दिया तथा उन्होंने उसी समय भारत को विदेशियों के हाथों आज़ाद कराने की प्रतिज्ञा ली और प्रण किया कि चाहे इस कार्य में उनकी जान ही क्यों न चली जाये वह पीछे नहीं हटेंगे.
जीवन के प्रारम्भिक दिनों से ही राजगुरु का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों की तरफ होने लगा था. अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक प्रदर्शन में पुलिस की बर्बर पिटाई से लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई थी.लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए राजगुरु ने 19 दिसंबर, 1928 को भगत सिंह के साथ मिलकर लाहौर में अंग्रेज़ सहायक पुलिस अधीक्षक ‘जे. पी. सांडर्स‘ को गोली मार दी थी और ख़ुद ही गिरफ़्तार हो गए थे.
15 मई,1907 को पंजाब के लायलपुर, जो अब पाकिस्तान का फैसलाबाद है, में जन्मे सुखदेव भगत सिंह की तरह बचपन से ही आज़ादी का सपना पाले हुए थे। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहा करते थे. ये दोनों ‘लाहौर नेशनल कॉलेज‘ के छात्र थे. दोनों एक ही सन में लायलपुर में पैदा हुए और एक ही साथ शहीद हो गए. इन्होने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवम् भगवती चरण बोहरा के साथ लाहौर में नौजवान भारत सभा का गठन किया था. सांडर्स हत्या कांड में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था. १९२९ में जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किये जाने के विरोध में व्यापक हड़ताल में भाग लिया था.
भगत सिंह और सुखदेव दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी. चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में ‘पब्लिक सेफ्टी‘ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल‘ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली‘ में बम फेंकने के लिए जब ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी‘ (एचएसआरए) की पहली बैठक हुई तो उसमें सुखदेव शामिल नहीं थे. बैठक में भगतसिंह ने कहा कि बम वह फेंकेंगे, लेकिन आज़ाद ने उन्हें इज़ाज़त नहीं दी और कहा कि संगठन को उनकी बहुत ज़रूरत है. दूसरी बैठक में जब सुखदेव शामिल हुए तो उन्होंने भगत सिंह को ताना दिया कि शायद तुम्हारे भीतर जिंदगी जीने की ललक जाग उठी है, इसीलिए बम फेंकने नहीं जाना चाहते. इस पर भगतसिंह ने आज़ाद से कहा कि बम वह ही फेंकेंगे और अपनी गिरफ्तारी भी देंगे.
अगले दिन जब सुखदेव बैठक में आए तो उनकी आंखें सूजी हुई थीं. वह भगत को ताना मारने की वजह से सारी रात सो नहीं पाए थे. उन्हें अहसास हो गया था कि गिरफ्तारी के बाद भगतसिंह की फांसी निश्चित है. इस पर भगतसिंह ने सुखदेव को सांत्वना दी और कहा कि देश को कुर्बानी की ज़रूरत है. सुखदेव ने अपने द्वारा कही गई बातों के लिए माफी मांगी और भगतसिंह इस पर मुस्करा दिए थे.
जब-जब हम शहीदे आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव जैसे शहीदों को याद करते हैं तोबरबस ये पंक्तियाँ याद आ ही जाती हैं-
कभी वो दिन भी आयेगा,
कि जब आजाद हम होंगे,
ये अपनी ही जमीं होगी,
येअपना आसमां होगा,
शहीदों कि चिताओं पर,
लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरनेवालों का,
यही नामों-निशां होगा.
पुण्यतिथि के अवसर पर देश के इन वीर सपूतों को शत शत नमन !
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