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चुनावी अपील

अंगार
अंगार
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ऋषिकेश शहर के प्रबुद्ध मतदाताओं, सादर नमस्कार| मैं न तो कोई नेता हूँ, न ही नगर पालिका चुनाव में किसी पद का उम्मीदवार हूँ और न ही किसी का चुनाव प्रचार कर रहा हूँ| मैं भी आपकी तरह ही एक आम मतदाता हूँ| ये मेरी आप सभी से नि:स्वार्थ अपील है और इसके माध्यम से मैं किसी व्यक्ति विशेष से सम्बंधित बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि आम बात कर रहा हूँ| इसे पढ़ें न पढ़ें, समझें न समझें ये आपका व्यक्तिगत अधिकार है|

जैसा कि आपको पता ही है की ऋषिकेश शहर में नगर पालिका चुनाव होने जा रहे हैं और जैसे बरसात में मेंढक सुसुप्तावस्था से जग कर बाहर आकर टर्राने लगते हैं ऐसे ही आजकल आपको नेताओं की तर्राहत भी सुनाई पड रही होगी| बस चुनाव के पहले के यही मात्र 10-15 दिन ही आप खुशनसीब रहते हैं कि आपके द्वारे बार-बार आकर ये आपको नमस्कार करते हैं और इनकी विनम्रता अपने उत्कर्ष पर होती है| चुनाव जीतने के बाद सब कुछ उल्टा हो जाता है, अब आपको इन्हें हाथ जोड़कर गिडगिडाना पड़ता है और आपकी विनम्रता अपने उत्कर्ष पर आ जाती है|

आप जानते ही हैं कि चुनाव समाज सेवा के नाम पर लडे जाते है लेकिन बाद में ये सेवा अपनी और अपने ख़ास लोगों की सेवा में परिवर्तित हो जाती है| चुनाव जीतने के बाद इनकी आर्थिक स्थिति में भी जबरदस्त उछाल आता है| और आये भी क्यों नहीं, आखिरकार चुनाव में खर्चा भी तो बहुत हो जाता है, उस ब्याज समेत वसूलना भी तो है| प्रशासन भी औपचारिकता के नाम पर प्रत्याशिओं को खर्चे के ब्योरे का एक फॉर्म थमा कर अपनी औपचारिकता पूरी कर लेता है जिसे भरना बांये हाथ का खेल होता है| असल खर्च तो इस तय सीमा से कहीं अधिक खुले आम होता है पर क़ानून की तरह ही प्रशासन भी तो अंधा ही होता है| जितनी सीमा तय है उतने का तो पीना-खाना ही हो जाता है|

अब बात करें इनकी समाज सेवा की| कल शाम की ही बात है, मेरे मोहल्ले के एक वृद्ध अपने मकान की दीवार पर चिपके इन महापुरुषों के पोस्टर उखाड़ने की कोशिश कर रहे थे साथ ही अत्यंत मृदु शब्दों में इन्हें जो आशीर्वाद दे रहे थे उनका वर्णन मैं यहाँ पर नहीं कर सकता| उन्होंने अभी कुछ दिन पहले ही मकान की पुताई करवाई थी कि कमबख्त चुनाव आ गए| प्राचीनकाल में सड़कें बनतीं थीं और उन पर यदा-कदा कोई एक-दो स्पीड ब्रेकर होते थे, लेकिन ऋषिकेश में अब स्पीड ब्रेकर बनते हैं और उन पर यदा-कदा कोई एक-दो टुकड़े सड़क के होते हैं| कभी-कभी तो सोचता हूँ कि इस शहर का नाम बदल कर ऋषिकेश से ब्रेकरशेष कर देना चाहिए| इन स्पीड ब्रेकरों पर कितने ही वृद्धों, महिलाओं को ठोकर खाकर गिरते और चोटिल होते देख चूका हूँ| कितने ही कमर की तकलीफ से पीड़ित लोग इन ब्रेकरों पर से वाहन गुरने के दौरान लगे झटकों से हाय-हाय कर इन स्पीड ब्रेकरों के निर्माताओं को असीम दुआ देते हैं| वाहनों के नुक्सान की बात मैं इसलिए नहीं करना चाहता कि इसकी वजह से लोग जल्दी ही नया वाहन लेने पर मजबूर हो जाते हैं| कुछ सल्फेट अपने घर के आगे एक मेंड सी बनवाकर उसे स्पीड ब्रेकर का रूप दे देते है और जब-जब इन ब्रेकरों पर कष्ट पाकर लोगों की आह निकलती है तब-२ इन्हें अत्यंत प्रसन्नता और स्वर्गिक सुख का अनुभव होता है| इन ब्रेकरों की उंचाई का हिसाब बराबर करने के लिए शहर में उतने ही गड्ढे भी छोड़े जाते हैं| शहर के हर गली-मोहल्ले की नालियों पर बने स्लैब के बीचों-बीच सिविल इंजीनियरिंग का बेहतरीन नमूना एक खुला चौकोर सा गड्ढा आपको जरूर मिलेगा| भले ही स्लैब ठीक न पडी हो, पर ये गड्ढा इस ख़ूबसूरती से बनाया जाता है कि चौपहिया वाहन का कम से कम एक पहिया और बम्पर इसकी सेवा अवश्य प्राप्त कर ले| मैंने कितने ही एक्सपर्ट ड्राइवरों को इन गड्ढों पर फेल होते देखा है और यह बात झूठ साबित होते भी देखी कि ड्राइवर बहुत गंदी-२ गालियाँ देते हैं| एक बार आपका पहिया इसमें गया और बम्पर नीचे लगा तो मरी हालत में 8-10 हजार का फटका तो लग ही जाता है| कभी-२ तो बम्पर उठाकर भी ले जाना पड़ता है|

एक बार मैंने कोशिश की कि अपने सभासद को इस बारे में ध्यान दिलाने की कोशिश की तो उन्होंने मेरी कम अक्ल में अपनी ज्यादा अक्ल से वृद्धि करते हुए बताया कि इन गड्ढों को सफाई करने के लिए जान-बूझकर खुला छोड़ा जाता है| बाद में उनकी यह बात सच भी साबित हुई जब मैंने इन गड्ढों में घुसे लोगों को अपने कपडे झाड़कर साफ़ करते हुए देखा| इसीलिए तो मित्रों नेता समझदार होते हैं और जनता हमेशा बेवकूफ ही रहती है| ये ईश्वर की विशेष अक्ल प्रदत्त संरचनाएं हैं, इन्हें ठीक से पहचानो| इनका जन्म ही जनता का बेडा भवसागर से पार कराने के लिए हुआ है| इनके द्वारा निर्मित ब्रेकरों पर ठोकर खाओ या खुले गड्ढों में घुसो, दोनों ही में आपका कल्याण कभी भी हो सकता है| वैसे कुछ सल्फेट खुद भी ऐसे होते हैं जो अपने घर के पास इस प्रकार का गड्ढा मौजूद होने पर गर्व महसूस करते हैं और जब-२ कोई गरीब इन गड्ढों का शिकार होता है तो इनके दिलों को असीम ईश्वरीय सुख प्राप्त होता है|

कुछ नेता जनता से वादा कर रहे हैं कि गंगा की धारा तट तक लायेंगे| कहीं इनका भागीरथ जी महाराज के कुल से कोई सम्बन्ध तो नहीं| शहर के नलखों में तो पानी आता नहीं, ऐसे में गंगा तट पे ही जाना उचित होगा| जब आदमी नया-२ मकान बनाता है तो हार्डवेयर की दूकान पे टंकी ऐसे छांटता है कि पानी इसकी टंकी में जरूर भरेगा| अरे भाई छत पर टंकी लगाने का शौक ही है तो पहले भागीरथ जी महाराज के सम्बन्धियों से तो पूछ लो या पैसा फालतू है तो शो पीस जरूर लगाओ|

पूरे शहर भर में एक-दो स्थान छोड़कर सार्वजनिक शौचालय (विशेष तौर पर महिला शौचालय) कहीं भी नहीं हैं| यदि कुछ स्थानों पर मूत्रालय हैं भी तो उनकी खोज करनी पड़ती है और उनकी स्थिति भी इतनी दयनीय है की लोग उनके भीतर नहीं बल्कि बाहर निवृत्त होते हैं| वो तो धन्य है ये पुरुष समाज कि किसी भी स्थान को पवित्र करने में कभी हिचकता नहीं| शहर में ये दृश्य आम हैं कि पुरुष दीवार की और मुंह करके तल्लीन हैं और बगल से महिलाएं गुजर रही हैं| भगवान् न करे की महिलाएं भी कहीं इसे बराबरी के अधिकार का मुद्दा बनाकर जगह-२ बैठने लगें तो स्थिति क्या होगी| शौचालय निर्माण करना इतना आसान काम नहीं है दोस्तों, इससे कहीं आसानी से तो अवैध बस्तियां बस जाती हैं और शौचालय के लिए तो खुला मैदान और खुला आसमान है ही|

तो मित्रों, चुनाव में अपने ख़ास-ख़ास नेताओं को विजयी बनाएं और अपने-२ काम करवाएं, सारी दुनिया से हमें क्या लेना? आपको अपने घर के बाहर थोड़ी जगह घेरनी हो, अपना हाउस टैक्स कम करवाना हो, अपनी नालियां साफ़ करवानी हों, चोक सीवर खुलवाना हो तो आपका ख़ास आदमी ही काम आएगा| अपनी-अपनी सोचो और बगल वाले को किलसने दो|

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