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हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ के आयोजन का कोई औचित्य है या बस यूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला? “Contest”

अंगार
अंगार
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हालांकि हमारे देश में हिंदी के विकास के नाम पर दिखावे के लिए हिंदी पखवाड़े जैसे आयोजन और तमाम तरह के पुरस्कार दिए जाते हैं लेकिन कडवा सच तो यही है कि इस सबके बावजूद हिंदी की दशा में कोई ख़ास सुधार नहीं है| बल्कि कह सकते हैं पुरस्कारों और सम्मान की लॉलीपॉप दिखाकर हिंदी को जबरन थोपने की कोशिश की जाती है और यह कोशिश भी विशेष तौर पर सिर्फ सरकारी महकमों तक ही सीमित होती है|

 

हर साल सितम्बर माह में सरकारी विभागों में हिंदी पखवाड़े का आयोजन किया जाता है जिसमें हिंदी विभाग अपनी पीठ खुद ही ठोकते नजर आते हैं| इस वार्षिक हिंदी उत्सव में हिंदी कामकाज को आंकड़ों की बाजीगरी दिखाकर और कुछ प्रतियोगिताओं का आयोजन एवं पुरस्कार वितरण करवाकर इतिश्री कर ली जाती है| लेकिन प्राइवेट सैक्टर में चूंकि हिंदी की अनिवार्यता थोपी नहीं जा सकती इसलिए वहां हिंदी का कोई नामलेवा होता ही नहीं है| बहुत से सरकारी विभागों में भी नौबत यहाँ तक आ गई है कि उन्होंने भी अपने कस्टमर केयर के लिए प्राइवेट पार्टियों के साथ अनुबंध किए हुए हैं जिनके प्रतिनिधि आमतौर पर अंग्रेजी में ही या मजबूरीवश टूटी-फूटी हिंदी में बात करते हैं| ऐसा ही कुछ हाल लगभग सभी सरकारी महकमों की वेबसाइटों का भी है जो या तो अंग्रेजी में ही हैं या हिंदी में हैं भी तो इनमें अद्यतित जानकारियाँ नहीं रहती हैं|

 

क्या यह बात कष्टप्रद और विचारणीय नहीं है कि हिंदी के विकास के लिए हमें हिंदी पखवाड़े जैसे कार्यक्रमों का आयोजन करना पड़ता है और पुरस्कारों का लालच दिखाकर लोगों को इन आयोजनों में भाग लेने हेतु आकर्षित करना पड़ता है| अहिन्दी भाषी लोगों को लिए तो एकबारगी इसे फिर भी उचित ठहराया जा सकता है लेकिन हिंदीभाषियों के लिए इस प्रकार के आयोजन और पुरस्कार देना ऐसा प्रतीत होता है मानों किसी को सांस लेने पर पुरस्कार दिया जा रहा है| इस प्रकार के आयोजन अंग्रेजी के लिए तो नहीं होते फिर भी उसका दिन-प्रतिदिन प्रयोग बढ़ रहा है जबकि तमाम तरह के आकर्षक प्रलोभनों के बावजूद हिंदी का प्रयोग कम होता जा रहा है|

 

इस तरह की औपचारिकताओं से हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा बल्कि हिंदी के विकास के नाम पर अनावश्यक खर्चा ही समस्त सरकारी महकमों में एक बजट हैड का प्रावधान मात्र बनकर रह गया है| यदि वाकई में हिंदी का विकास करना है तो हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग करना अपना नैतिक कर्तव्य समझना पड़ेगा| अपने देश में तो कम से कम समस्त देशवासियों को अंग्रेजी के नहीं बल्कि हिंदी के माध्यम से ही आपस में जुड़ना होगा|

 

हिंदी के प्रति हमारी इमानदारी और समर्पण का आंकलन इस बात से ही हो जाता है कि अभी तक हमारी संसद में विभाजन हेतु मतदान के समय हाँ और नहीं जैसे सामान्य से हिंदी के शब्दों के स्थान पर AYES और NOES जैसे बेतुके शब्दों का प्रयोग किया जाता है| यह अत्यंत दुःख और हैरत का प्रश्न है कि आज तक किसी लोकसभा या राज्यसभा के स्पीकर ने आगे बढ़कर इस विदेशी परंपरा को बदलने की कोशिश क्यों नहीं की| इसी इमानदारी और समर्पण की कमी के चलते आज तक हमारे देश के कुछ अहिन्दीभाषी प्रांत हिंदी को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते लेकिन अंग्रेजी को तुरंत सिरमाथे पर लेते हैं| सोनिया गांधी जैसी विदेशी स्त्री को हिंदी में बोलने की कोशिश करते देखना सुखद प्रतीत होता है लेकिन जब हमारे स्वदेशी राजनेता हिंदी को तिरस्कृत कर अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करते हैं, तब ऐसे में अत्यंत कष्ट का अनुभव होता है|

 

यदि समस्त देशवासियों को हिंदी के माध्यम से जोड़ना है और देश के सभी प्रान्तों के लिए हिंदी की स्वीकार्यता बनानी है तो इसके लिए हमारे राजनेता एक सशक्त माध्यम बन सकते हैं| जिस दिन इस देश का राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, लोकसभा स्पीकर और तमाम मंत्री अर्थात देश के शीर्षस्थ सरकारी पदों पर बैठे लोग स्वयं हिंदी में बोलना, लिखना और काम करना शुरू कर देंगे, इस देश में हिंदी का एकछत्र राज हो जायगा| तब तमाम सरकारी और निजी महकमे भी हिंदी में स्वतः ही काम करने लगेंगे और हमें हिंदी के विकास के लिए हिंदी पखवाड़ों या पुरस्कारों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी|

 

काश कि एक दिन हम समस्त देशवासी इकबाल के प्रसिद्द गीत ‘सारे जहां से अच्छा’ की इस पंक्ति को सिर्फ गीत में गाने के बजाय सार्थक कर दिखाएं और गर्व से कह सकें कि-

 

“हिन्दी हैं हम वतन है, हिन्दोस्ताँ हमारा”

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